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गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १६३ की समीक्षा करना प्रारम्भ किया। प्राचीन और नवीन सभी कवियों-लेखकों की आलोचना उन्होंने इसी आदर्श पर की। परन्तु, प्राचीन काव्यकृतियों की आलोचना के सन्दर्भ में उनकी एक प्रवृत्ति सर्वत्र परिलक्षित होती है । वे प्राचीन कवियों के काव्य की विवेचना करने के साथ ही कवि का ऐतिहासिक परिचय एवं तत्सम्बन्धी विस्तृत गवेषणा भी प्रस्तुत करते जाते थे । इसी प्रवृत्ति को लक्ष्य कर डॉ० प्रभाकर माचवे ने लिखा है :
"आलोचनाओं में आचार्य द्विवेदी की दृष्टि काव्य-समीक्षा पर अत्यल्प रही और कवि या उसके आश्रयदाता के समय उसके जीवनवृत्त आदि पर अत्यधिक आज समालोचना के क्षेत्र में कवि के जीवन तथा उसके काल-निर्णय पर विशेष दृष्टि डालने की पद्धति नही है । ये साहित्य के इतिहास-क्षेत्र की वस्तुएँ समझी जाती हैं ।""
परन्तु द्विवेदीजी की आलोचनाओं में इनका बड़ा विस्तार मिलता है । 'विक्रमांकदेवचरितचर्चा', 'नैषधचरितचर्चा' एवं 'कालिदास' में कवि, उसके काल, आश्रयदाता का काल एवं कवि के जीवन पर ही अधिक पृष्ठ भरे गये है । जैसे, 'कालिदास' में कालिदास के काल निर्णय पर ही १०८ पृष्ठों का उपयोग किया गया है, जबकि कुल पुस्तक मात्र २३५ पृष्ठों की है। इस प्रकार, द्विवेदीजी द्वारा की गई प्राचीन कवियों की परिचयात्मक आलोचनाओं में कवि की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत करने की प्रवृति दीख पड़ती है। आधुनिक ग्रन्थों की समीआ करते समय द्विवेदीजी ने ऐसा नहीं किया है । 'सरस्वती' के 'पुस्तक परिचय' स्तम्भ में तथा अन्यत्र कई स्थानों में अपने समय के साहित्य की परिचयात्मक आलोचना करते समय द्विवेदीजी ने रचना की गुण-दो-ममस्या आदि का ही विवेचन किया है। प्राचीन कवियों की समीक्षा करते समय जिस प्रकार वे ऐतिहासिकता के चक्कर में विषयान्तर हो जाते थे, उसी प्रकार सामयिक कृतियो की समीक्षा करते समय वे रचना की मूल समस्या को लेकर विषयान्तर हो जाया करते थे । आलोचना मे समस्याओं का प्रवेश द्विवेदीजी ने ही कराया था । ऐसे कई उदाहरण मिलते है कि विविध विषयों की पुस्तकों की विवेचना करते-करते द्विवेदी पुस्तक के वर्ण्य विषय अथवा उठाई गई समस्या पर ही गम्भीर विस्तृत चिन्तन करने लगे है । यथा, सन् १९०७ ई० की 'सरस्वती' में 'स्त्रीशिक्षा' की आलोचना में उन्होने पुस्तक की अपेक्षा स्त्रीशिक्षा की आवश्यकता पर विस्तार से विचार किया है। ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य नितान्त सुधारवादी एवं आदर्शमूलक था । इसी कारण, वे अपने युग की सभी अशोभन एवं आदर्शच्युत रचनाओं की कड़ी समीक्षा करते थे और नैतिक दृष्टि से सम्पन्न तथा मुरुचिपूर्ण कृतियों की प्रशंसा करते थे। डॉ० माहेश्वरी सिंह 'महेश' के अनुसार :
१. डॉ० प्रभाकर माचवे : 'समीक्षा की समीक्षा', पृ० ८६ ।