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१६० ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्त्तत्व प्रकाशन बम्बई के वेंकटेश्वर-समाचार' में नवम्बर, १८९७ से मई, १८९८ ई. तक होता रहा । कुछ समय बाद 'मेघदूतभाषा' और 'रघुवंशभाषा' की समीक्षाएँ भी लिखी गई। द्विवेदीजी की इन सारी प्रारम्भिक समीक्षात्मक रचनाओं का पुस्तकाकार संकलन 'हिन्दी-कालिदास की समालोचना' के नाम से सन् १९०१ ई० में प्रकाशित हुआ। परन्तु, उनकी पहली परिचयात्मक समीक्षा-पुस्तक 'हिन्दी-शिक्षावली, तृतीय भाग' की समीक्षा थी, जिसका प्रकाशन सन् १८९९ ई० में हुआ था। परिचयात्मक आलोचना के अन्तर्गत परिगणित की जानेवाली द्विवेदीजी की पुस्तकों में क्रमश. 'हिन्दीशिक्षावली, तृतीय भाग' की समालोचना, 'नैषधचरितचर्चा', 'हिन्दी-कालिदास की समालोचना', 'विक्रमांकदेवचरितचर्चा', 'कालिदास की निरंकुशता', 'कालिदास', 'कालिदास और उनकी कविता' और 'आलोचनांजलि' की चर्चा की जा सकती है। इन सबमें ही द्विवेदीजी ने आलोचना की परिचयात्मक एव गुणदोष-दर्शन की नीति अपनाई है। 'सरस्वती' के 'पुस्तक-परिचय' स्तम्भ में भी उनकी यही आलोचनापद्धति दीख पड़ती है । प्राचीन अथवा नवीन लेखकों के गुणों तथा दोषो का परिदर्शन करने में द्विवेदीजी ने पक्षपातरहित आलोचना की है। उन्होंने समझ लिया था कि आलोच्य विषय लेखक नही, उसकी रचना है । डॉ० प्रभाकर माचवे ने उनकी इसी आलोचना-नीति के सम्बन्ध में लिखा है :
आचार्य द्विवेदीजी की आलोचना-शैली पर विचार करते समय हमें इसपर ध्यान रखना होगा कि उनकी आलोचना का मानदण्ड गुणदोष-निरूपण है। ऐसी स्थिति में यह सत्य है कि दोष दिखने पर वे उसे बिना दिखाये और उसकी कड़ी समीक्षा किये नहीं रहते थे और गुण मिलने पर वे उसकी प्रशंसा में भी कोताही नहीं दिखाते थे।"१
स्पष्ट है कि मित्रों के स्नेह अथवा शत्रुओं के द्वष से द्विवेदीजी की आलोचनाएँ कभी प्रभावित नहीं हुई। आलोचना के क्षेत्र में दलबन्दी उन्हें पसन्द नही थी। इस सम्बन्ध में उन्होंने एक बार 'सरस्वती' में लिखा था : ।
"मित्रता के कारण किसी पुस्तक की अनुचित प्रशंसा करना विज्ञापन देने के सिवा और कुछ नहीं। ईर्ष्या-द्वेष अथवा शत्रुभाव के वशीभूत होकर किसी कृति में अमूलक दोषोद्भावना करना उससे भी बुरा काम हैं ।।२।। ___ इसी गुटनिरपेक्षता का परिपालन द्विवेदीजी ने अपनी सभी परिचयात्मक आलोचनाओं में किया है। उनकी यह न्यायपूर्ण समालोचनात्मक दृष्टि और अप्रिय सत्य को भी स्पष्टतः कह देने की आदत दूसरों को बहुत खटकती थी। परन्तु, द्विवेदीजी ने जिस
१. डॉ० प्रभाकर माचवे : 'समीक्षा की समीक्षा', पृ० १८२ । २. निर्मल तालवार : 'आचार्य द्विवेदीजी', पृ० १४६ पर उद्धृत ।