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१५२ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
पाश्चात्त्य समीक्षा- सिद्धान्तो का अध्ययन होता गया, त्यो त्यों हिन्दी मे आलोचनासाहित्य समृद्ध होता गया । भारतेन्दु-युग में आलोचना अपनी शैशवावस्था में थी । इसमे प्राय प्रशसा और दोप-दर्शन की प्रवृत्ति के दर्शन होते है, आलोचना की प्रौढता और गम्भीरता के नही । फिर भी, आलोचना का श्रीगणेश करने की दृष्टि से भारतेन्दुयुग के महत्त्व को अस्वीकार नही किया जा सकता है । डॉ० भगवत्स्वरूव मिश्र ने लिखा है :
"भारतेन्दु काल की समीक्षा का महत्त्व समीक्षा की प्रौढ शैली के कारण नहीं, अपितु उन तत्त्वो के कारण है, जो भावी विकास का स्वर्णिम और उज्ज्वल सन्देश लेकर आये है।''१
हिन्दी-आलोचना को विकसित करने और उसे सही दिशा प्रदान करने का श्रेय पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनके समसामयिक समालोचकों को है । हिन्दीसमीक्षा के इतिहास मे द्विवेदी युग को पुनरुत्थानवादी युग कहा जा सकता है । पुनरुत्थानवादी आवेश मे इस काल के साहित्यकारों ने अतीत के साहित्य सेवियों की रचनाओं की समीक्षा का सूत्रपात किया तथा आधुनिक रचनाओ की भी आलोचना समय समय की जाती रही। अपने युग की अन्य साहित्यिक प्रक्रियाओं की भाँति आलोचना का भी नेतृत्व द्विवेदीजी ने ही किया। संस्कृत की प्राचीन साहित्यशास्त्रीय परम्परा एव अंगरेजी के नूतन समीक्षा- सिद्धान्त से हिन्दी-संसार को लाभान्वित करने के उद्देश्य से द्विवेदीजी ने हिन्दी - आलोचना मे इन दोनों ही आलोचनापद्धितयों का समावेश किया । द्विवेदीजी ने स्वयं संस्कृत-काव्यों की समीक्षा की एवं अन्य प्रकार से संस्कृत के काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों को हिन्दी मे प्रस्तुत किया । अन्य लोगों से उन्होंने अँगरेजी के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थो का अनुवाद कराया । सैद्धान्तिक दृष्टि से उन्होंने हिन्दी-समीक्षा मे नीति, सुरुचि, औदात्त्य आदि की प्रतिज्ञा करके शास्त्रीयता की भूमि मे समन्वयवादी, नवीनतावादी और पुनरुत्थानवादी समीक्षा - शैलियों का बीज - वपन किया । उनकी यह सारी आलोचना - प्रणालियाँ तत्कालीन हिन्दी - आलोचना मे व्याप्त है । डॉ० रामदरश मिश्र के अनुमार :
" द्विवेदीजी अपने काल के प्रतिनिधि साहित्य- विचारक और आलोचक थे । अतएव, उस काल मे लक्षित होनेवाली सारी आलोचनात्मक चेष्टाएँ और उपलब्धियाँ आपकी समिक्षा - कृतियों में पाई जा सकती हैं ।" "
समालोचक के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह सम्पादक भी हो, परन्तु जो समालोचक सम्पादक भी होते हैं, उनकी आलोचना अधिक सुगम, प्रामाणिक और सही
१. डॉ० भगवत्स्वरूप मिश्र : 'हिन्दी - आलोचना : उद्भव और विकास', १० २४६ ।
२. डा० रामदरस मिश्र 'हिन्दी - आलोचना : स्वरूप और विकास', पृ० १५ ।