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१४४ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ___ "द्विवेदीजी के लेखों को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठको के लिए लिख रहा है । एक-एक सीधी बात कुछ हेर-फेर, कही-कहीं केवल शब्दों के ही,के साथ पाँच-छः तरह से पाँच-छः वाक्यो मे कही हुई मिलती है। उनकी यही प्रवृत्ति उनकी गद्यशैली निर्धारित करती है। उनके लेखो मे छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग अधिक मिलता है । नपे-तुले वाक्यो को कई बार शब्दों के कुछ हेर-फेर के साथ कहने का ढग वही है, जो वाद या संवाद मे बहुत शान्त होकर समझाने-बुझाने के काम में लाया जाता है।"१
द्विवेदीजी इस प्रकार लिखते थे—बात को इस प्रकार स्पष्ट करते थे, मानों पाठकों की बुद्धि पर उनको विश्वास न हो । यही कारण है कि वे अपनी बात बार-बार दुहराते जाते थे। पुनरुक्ति की यह प्रवृत्ति कई आलोचको एवं पाठको को खटकी है, परन्तु द्विवेदीजी की इस सरल शैली का अपना युगीन महत्त्व है । 'कवियों की उर्मिलाविषयक उदासीनता', शीर्षक उनके प्रसिद्ध निबन्ध मे यह पुनरुक्तिपूर्ण सुबोध शैली स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है, यथा :
"लक्ष्मण ने भ्रातृस्नेह के कारण बड़े भाई का साथ दिया। उन्होंने राजपाट छोड़ कर अपना शरीर रामचन्द्र को अर्पण किया, यह बहुत बड़ी बात थी। पर उर्मिला ने उससे भी बढ़कर आत्मोत्सर्ग किया। उसने अपनी आत्मा की अपेक्षा भी अधिक प्यारा अपना पति राम-जानकी के लिए दे डाला और यह आत्मसुखोत्सर्ग उसने तब किया, जब उसे ब्याह कर आये हुए कुछ ही समय हुआ था। उसने सांसारिक सुख के सबसे अच्छे, अंश से हाथ धो डाला।" एक शिक्षक जिस प्रकार अपने शिष्यों को विषय को बार-बार दुहराकर बोध कराता है, द्विवेदीजी ने भी सामान्य समझ में आने योग्य भाषाशैली का इसी प्रकार जमकर व्यवहार किया है । अपनी पत्रिका के माध्यम से उन्होंने जिस सरल-सुबोध-सरस शैली का उपस्थापन किया है, डॉ० जैकब पी० जॉज ने 'सार्वजनिक गद्यशैली के नाम से अभिहित किया है।'२ विषयों की अनेकरूपता, हिन्दी-भाषा की उन्नति एवं प्रचार तथा 'सरस्वती' की गौरव-स्थापना के उद्देश्य से द्विवेदीजी ने अपने निबन्धों में अनेक शैलियों का प्रयोग किया है । डॉ० उदयभानु सिंह के अनुसार
"शैली की दृष्टि से द्विवेदीजी के निबन्धों की तीन प्रमुख कोटियाँ है-वर्णनात्मक भावात्मक और चिन्तनात्मक । यों तो, द्विवेदीजी के सभी निबन्धो का उद्देश्य निश्चित विचारों का प्रचार करना रहा है और उन सभी विचारों का न्यूनाधिक
१. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'रसज्ञरंजन', पृ० ९५ । २. डॉ. जेकब पी० जॉर्ज : 'आधुनिक हिन्दी-गद्य और गद्यकार', पृ० १३७ ।