________________
गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १३७
(च) अन्य विषयों पर आधृत निबन्ध : द्विवेदीजी ने जीवनचरित, साहित्य, इतिहास, विज्ञान और अध्यात्म के साथ ही कई राजनीतिक, सामाजिक एवं महिलोपयोगी विषयों पर भी निबन्ध लिखे थे । उनके महिलोपयोगी कई निबन्धों का संकलन 'वनिताविलास' एवं 'महिलामोद' में हुआ है । इसी तरह सामाजिक-राजनीतिकआर्थिक विषयों पर भी उन्होंने प्रचुर मात्रा में निबन्ध लिखे है । 'लेखांजलि', 'दृश्यदर्शन', 'आख्यापिका-सप्तक', 'सकलन' और 'विचार-विमर्श' जैसे निबन्ध-संग्रहो मे इन विविध विषयों पर आधृत द्विवेदीजी के निबन्ध भरे हुए है ।
स्पष्ट है कि द्विवेदीजी ने विषय के वैविध्य से ओतप्रोत निबन्ध द्वारा हिन्दीसाहित्य की अभिवृद्धि की । परन्तु, संख्या में अधिक तथा विषयों की दृष्टि से विविधतापूर्ण होते हुए भी उनकी निबन्ध-कला में निबन्ध की सच्ची आत्मा कहीं दृष्टिगत नहीं होती । द्विवेदीजी के अधिकांश निबन्धो का स्वरूप टिप्पणी जैसे है और उनमें व्यक्तिपरकता का पुट नहीं है । इसे ही लक्ष्य कर श्रीहंसकुमार तिवारी ने लिखा है :
"सच तो यह है कि चाहे जिस कारण से भी हो, द्विवेदीजी की निबन्धकारिता का स्वतन्त्र रूप से विकास न हो सका । उनकी छोटी-छोटी रचनाएँ संख्या में लगभग ढाई सौ हैं. मगर सब टिप्पणी जैसी हैं । उनका आरम्भ कथ्य कथन से होता है और आदि से उपसंहार तक संग्राहक वृत्ति का परिचय मिलता है ।" "
उनकी रचनाओं में, निबन्धों की इस कमी को अनेक आलोचकों ने लक्ष्य किया है । वास्तव में, उनकी शताधिक रचनाएँ टिप्पणियों जैसी हैं, उनमें निबन्ध के गुण सही अर्थों में नहीं हैं । ‘दण्डदेव का आत्माभिमान' आदि गिनी-चुनी निबन्धात्मक रचनाओं में ही रोचकता, स्वतन्त्रता और आत्मीयता मिलती है, अन्यथा द्विवेदीजी के अधिकांश निबन्धों की आत्मा के दर्शन नहीं होते हैं । श्रीजयनाथ नलिन के शब्दों में :
" द्विवेदीजी यथार्थ मे आचार्य थे । आचार्य पथ-प्रदर्शन करता है, अन्यों को निर्माणकार्य में लगाता है, स्वय चाहे अधिक निर्माण न कर सके । इनके अधिकतर लेख निबन्ध की कोटि में नही आते । जानकारी की बातें उनमें मिलेंगी, निबन्धात्मकता नहीं ।
P..
. इनके निबन्धों मे भाषा की शुद्धता, सार्थकता, शब्दों की प्रयोगपटुता और वाक्यों की सधी हुई प्रणाली तो मिलेगी, पर सूक्ष्म पर्यवेक्षण और विचारों का विश्लेषण नहीं । स्वाधीन चिन्तन, अनभिभूत विचार, अछूती भावना - जो निबन्ध की आन्तरिक स्वरूपशक्तियाँ है, इनके निबन्धों में कम ही मिलती है । उनमें संग्रहबोध की विविधता, जानकारी की बहुलता और पत्रकारिता की सूचना सम्पन्नता ही अधिक है ।२
१. डॉ० लक्ष्मीनारायण सुधांशु : 'हिन्दी-साहित्य का बृहत् इतिहास', पृ० १०४, भाग १३ ।
२. श्रीजयनाथ नलिन : 'हिन्दी - निबन्धकार', पृ० १०२ - १०३ ॥