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१२४ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
से रोज गंगाजल आता था। उसी में मूत्ति-स्नान होता था। एक हजार ब्राह्मण पूजा के लिए और साढ़े तीन सौ नाचने-गानेवाले देवमूत्ति को रिझाने के लिए नियत थे। यात्रियों की हजामत बनाने के लिए तीन सौ नाई थे। इन सब लोगों की तनख्वाह मुकर्रर थी। मन्दिर में लकड़ी के ५० खम्भे थे। उसके ऊपर सीसा जड़ा हुआ था। मूत्ति ५ हाथ उँची थी। वह एक अँधेरे कमरे में थी। कमरे में रत्नखचित दीपक जलते थे। मूर्ति के पास छत से सोने की जंजीर लटकती थी। उससे २०० मन वजनी एक घण्टा टॅगा था। इस मन्दिर की लूट से महमूद गजनवी को एक करोड़ रुपये का माल मिला था ।"१ छोटे-छोटे वाक्यों और सरल शब्दों का सुन्दर प्रयोग इस विवरण में मिलता है। तत्कालीन सार्वजनिक गद्यशैली का यही स्वरूप द्विवेदीजी ने स्थापित किया था। सरल-सहज एवं स्पष्ट शैली होने के कारण इसमें परिचयात्मकता का आभास मिलता है । अनेक विद्वानों ने द्विवेदीजी की इस सरल एवं सुबोध शैली को 'परिचयात्मक शैली' की ही संज्ञा दी है। जिस प्रकार कोई गाइड पर्यटकों को समझा-समझाकर दर्शनीय स्थलो का परिचय देता है, उसी प्रकार द्विवेदीजी ने भी विविध विषयों के निरूपण के लिए सहज बोधगम्य परिचय देनेवाली शैली अपनाई है। डॉ. वासुदेवनन्दन प्रसाद ने लिखा है :
"यों तो द्विवेदीजी की गद्यशैली में अनेकरूपता है, परन्तु द्विवेदीजी की रचनाओं की प्रतिनिधि शैली परिचयात्मक है । इसमें सरल ढंग से और सरल भाषा में विचारों में व्याख्यात्मकता लाने का प्रयत्न किया गया है। एक अध्यापक जिस प्रकार अपने 'छात्रों को कोई गम्भीर विषय बार-बार दुहराकर समझाता है और उसे अधिकाधिक बोधगम्य बनाने की चेष्टा करता है, उसी प्रकार की चेष्टा द्विवेदीजी ने अपनी शैली द्वारा की है।"२
सरलतम भाषा में गम्भीरतम बात कहना द्विवेदीजी की शैली का आदर्श रहा । जब कभी उन्हें किसी गम्भीर विषय की विवेचना करनी पड़ती थी, वे अपनी भाषा
और शैली द्वारा अपनी रचना में घरेलू वातावरण उपस्थित कर देते थे। हिन्दी की • सहज प्रकृति के अनुकूल मुहावरों, कहावतों, शब्दों आदि को ग्रहण करके पाठकों के समक्ष 'मेघदूत' के रहस्य तक को सरल भाषा मे रख देते हैं :
"जरा इस यक्ष की नादानी तो देखिए । आग, पानी, धुएँ और वायु के संयोग से बना हुआ कहाँ जड़ मेघ और कहाँ बड़े ही चतुर मनुष्यो के द्वारा भेजा जाने योग्य सन्देश । परन्तु, वियोगजन्य दुःख से व्याकुल हुए यक्ष ने इस बात का कुछ भी विचार
१. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'विचार-विमर्श', पृ० १०३ । २. डॉ. वासुदेवनन्दन प्रसाद : 'विचार और निष्कर्ष', पृ० १२२ ।