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गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [-११९
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के निधन एवं 'सरस्वती' के माध्यम से द्विवेदीजी के उदय के बीच हिन्दी-जगत् में चतुर्दिक अराजकता व्याप्त हो गई थी। भाषा, भाव, विधान, शैली आदि से सम्बद्ध आदर्श के अभाव में उस समय के सभी साहित्यकार एक ऐसे अजीब-से चक्रव्यूह फंसे थे, जिससे हिन्दी को कोई वीर साहसी अभिमन्यु-सरीखा दृढ़प्रतिज्ञ पुरुष ही त्राण दिला सकता था। उस समय की सबसे बड़ी उलझन तो यह थी कि सभी अपनी-अपनी डफली लेकर अपना राग अलाप रहे थे, कोई किसी को नहीं सुनता था । ऐसी परिस्थिति मे एक ऐसे स्वतन्त्र मनीषी व्यक्ति की आवश्यकता थी, जो किसी के झूठे वर्चस्व को स्वीकार न करे तथा अपने स्वतन्त्र विचारों से भाषा के क्षेत्र में मार्गदर्शन करे। किन्त, अराजकता-भरे उस वातावरण में ऐसा करना कोई हँसीखेल नही था । वही इस कार्य में सफल हो सकता था, जिसमें प्रतिभा का सम्बल हो, विवेक की गहरी दृष्टि हो, जीवन की अखण्ड ज्योति हो तथा किसी से न डरनेवाला साहस हो । संयोगवश, आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी इन सभी चरित्न एवं लेखनीगत गुणों से लेकर मामने आये । इनका व्यक्तित्व प्रारम्भ से ही इतना ओजस्वी था कि जो सामने आता था, नतमस्तक हो जाता था और जो अड़ गया, वह या तो टूटकर खण्ड-खण्ड हो गया अन्यथा बाद में स्वयं इनकी शरण में आ गया। अपनी इन्हीं विशेषताओं के द्वारा उन्होंने अपने समय की हिन्दी-गद्यशैली का नियमन किया और भाषा का अप्रतिम सुधार किया। श्रीप्रेमनारायण टण्डन' ने ठीक ही लिखा है : _ 'बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में द्विवेदीजी के प्रादुर्भाव के समय भाव-प्रकाशन का जो अस्थिर और अपरिपक्व स्वरूप दिखाई देता था, उसमे सजीवता और बोधगम्यता का पुट देते हुए, प्रौढता और बल का संचार करते हुए, ज्ञात और अज्ञात, प्रकट और परोक्ष रूप से अपने समकालीन लेखकों की रचनाशैली पर आधिपत्य स्थापित करते हुए, विलक्षतापूर्ण और चमत्कारयुक्त जिस नवीन, विविध भाव-प्रतिपादन-प्रणाली को द्विवेदीजी ने जन्म दिया, वही आज हिन्दी-भाषा के प्रचार-प्रसार और हिन्दी-साहित्य की आधुनिक उन्नति का प्रधान कारण है ।"१
अपने द्वारा सम्पादित पत्र 'सरस्वती' तथा अन्यान्य पुस्तकों द्वारा द्विवेदीजी ने गद्यभाषा की स्थिरता के लिए अथक प्रयास किया। आचार्य शिवपूजन सहाय ने लिखा है : ___ "तब हिन्दी-गद्य ठीक जेठ की गंगा के समान था। उसके उथले जल पर हल्के विचारों की छोटी नौकाओं को कुशल' साहित्यिक मल्लाह बहुत मँभाल कर खेते थे । द्विवेदीजी की बदौलत अब उसी गद्यधारा में गहराई आ गई है और उसका विस्तार अब बहुत बढ़ गया है, जिसपर गम्भीर भावों और गहन विषयों के बड़े-बड़े जलपोत
१. श्रीप्रेमनारायण टण्डन : 'द्विवेदी-मीमांसा', पृ० १९२ ।