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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
हे महामति ! यही कारण है कि, मैं आप से धर्माचरण करने की
जल्दी कर रहा हूँ ।
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महाबल राजा ने कहा: - 'हे स्वयंबुद्ध ! हे बुद्धिनिधान ! तू ही एक मात्र मेरा बन्धु है, जो मेरे हित के लिये — मेरी भलाई के लिए तड़फा करता है । विषयों से आकर्षित और मोह-निद्रा में निद्रित अथवा विषयों के फन्दे में फँसे हुए और मोह की नींद में सोये हुए मुझ को जगाकर तुमने बहुत अच्छा किया। अब मुझे यह बताओ कि, मैं किस तरह धर्मकी साधना करूँ । आयु थोड़ी रह गई है, इतने समय में मुझे कितना धर्म साधन करना चाहिए ? आग लग जाने पर तत्काल कुआं किस किस तरह खोदा जाता है ?
स्वयंबुद्ध ने कहा - 'महाराज ! आप खेद न करें और दृढ़ रहें । आप, परलोक में मित्र के समान, यतिधर्म का आश्रय लें I एक दिनकी भी दीक्षा पालने वाला मनुष्य मोक्ष लाभ कर सकता है; तब स्वर्ग की तो बात ही क्या है ?" फिर महाबल राजा ने उस की बात मंजूर कर के, आचार्य जिस तरह मन्दिर में मूर्त्ति की स्थापना करते हैं; उसी तरह पुत्र को अपनी पदवी पर स्थापन किया ; यानी उसे राजगद्दी सौंपी। इस के बाद उसने दीन और अनाथ लोगों को ऐसा अनुकम्पादान दिया कि, उस नगर में कोई मँगता ही न रह गया। दूसरे इन्द्र की तरह उसने चैत्यों में विचित्र प्रकार के वस्त्र, माणिक, सुवर्ण और फूल वगेर: से पूजा की। बाद में; स्वजन और परिजनोंसे क्षमा माँड, मुनीन्द्रके चरणों मेंजा, उसने उनसे मोहलक्ष्मी की सखी रूपा दीक्षा अङ्गीकार की ।