________________
प्रथम पर्व
६५
आदिनाथ चरित्र
नहीं हैं; परन्तु युद्ध में जिस तरह अवसर आने से मन्त्रास्त्र ग्रहण किया जाता है; उसी तरह अवसर आने पर धर्मको ग्रहण करना उचित है । बहुत दिनों में आये हुए मित्र की तरह यौवन की प्रतिपत्ति किये बिना, कौन उसकी उपेक्षा कर सकता है ? 'तुमने जो धर्म का उपदेश दिया है, वह अयोग्य अवसर पर दिया है; अर्थात् बे-मौके दिया है; क्योंकि वीणा के बजते समय वेद का उच्चार अच्छा नहीं लगता। धर्म का फल परलोक है, इस में सन्देह है। इसलिये तुम इस लोक के सुखास्वाद का निषेध क्यों करते हो ? अर्थात् इस दुनिया के मज़े लूटने से मुझे क्यों रोकते हो ?'
राजा की उपरोक्त बातें सुनकर स्वयं बुद्ध हाथ जोड़ कर बोला - " आवश्यक धर्म के फल में कभी भी शंका करना उचित नहीं, आपको याद होगा कि, बाल्यावस्था में आप एक दिन नन्दन न में गये थे । वहाँ एक सुन्दर कान्तिवान देव को देखा था । उस समय देव ने प्रसन्न होकर आप से कहा था- 'मैं अतिवल नामक तुम्हारा पितामह हूँ । क्रूर मित्र के समान विषय-सुखों से उद्विग्न होकर, मैंने तिनके की तरह राज्य छोड़ दिया और रत्नत्रय को ग्रहण किया । अन्तावस्था में भी, व्रत रूपी महल के कलश रूप त्याग-भाव को मैंने ग्रहण किया था। उसके प्रभाव से मैं लान्तकाधिपति देव हुआ हूँ । इसलिये तुम भी असार संसार में प्रमादी होकर मत रहना ।' इस प्रकार कहकर, बिजली की तरह आकाश को प्रकाशित करता हुआ, वह देव अन्तर्धान हो
५