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प्रथम पर्व
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आदिनाथ- चरित्र
उचित
कपूर
मनुष्यों पर
पुद्गलों को खानेवाला मनुष्य, उन्मत्त पशु की तरह, कर्म को जानता ही नहीं । चन्दन, अगर, कस्तूरी और प्रभृति की सुगन्ध से, सर्पादिकी तरह, कामदेव आक्रमण करता है। काँटों की बाड़ में उलझे हुए कपड़े के पल्ले से जिस तरह मनुष्य की गति स्खलित हो जाती है; उसी तरह स्त्री आदि के रूप में संलग्न हुए नेत्रों से पुरुष स्खलित हो जाता है । धूर्त मनुष्य की मित्रता जिस तरह थोड़ी देर के लिए सुखकारी होती है; उसी तरह बारम्बार मोहित करने वाला संगीत हमेशा कल्याणकारी नहीं होता। इसलिए, हे स्वामिन्! पाप के मित्र, धर्म के विरोधी और नरक में आकर्षण करने के लिए पापरूप विषयों को दूर से ही त्याग दो; क्योंकि एक तो सेव्य होता है और दूसरा सेवक होता है; एक याचक होता है. और दूसरा दाता होता है; एक वाहन होता है और दूसरा उसके ऊपर चढ़ने वाला होता है; एक अभय माँगनेवाला होता है और दूसरा अभयदान देनेवाला होता है, – इत्यादिक बातों से इस लोक में ही, धर्म-अधर्म का बड़ा भारी फल देखने में आता है । यदि धर्म-अधर्म का फल प्राणी को न भोगना पड़ता, तो इस जगत् में हम सब को समान देखते। किसी को मालिक और किसी को नौकर, एक को भिखारी और दूसरे को दाता, एक को सवारी और दूसरे को सवार तथा एक को अभय माँगनेवाला और दूसरे को अभयदान देनेवाला न देखते । सारांश यह, जो जैसा भला या बुरा कर्म करता है; उसे वैसा ही फल मिलता.