SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम पर्व आदिनाथ-चरित्र उसे अपने निर्मल अन्तः करण के समान ताज़ा घी दीख गया। उसने कहा-'क्या यह आपके ग्रहण करने योग्य है ?? साधुओं ने उत्तर दिया-'हाँ, इसे हम ग्रहण कर सकते हैं। यह हमारे उपयोग में आ जायगा। इसके लेनेमें हमें कोई आपत्ति नहीं।' यह कहते हुए उन्होंने अपना पात्र रख दिया। मैं धन्य हुआ, मैं कृतकृत्य हुआ, मैं पुण्यात्मा हुआ, ऐसा विचार करते-करते उसे रोमाञ्च हो आया और उसने साधुओं को धी दे दिया। आनन्द के आँसुओं द्वारा पुण्याङ्कुर को बढ़ाते हुए, सार्थवाह ने घृत दान करने के बाद मुनियों को नमस्कार किया। मुनि भी सब प्रकार के कल्याणों की सिद्धि में सिद्ध मंत्र के समान 'धर्मलाभ' देकर अपने आश्रम को चले गये। इस दान के प्रभाव से, सार्थवाह को, मोक्षवृक्ष का बीज-रूप, अतीव दुर्लभ बोधिवीज- समकित प्राप्त हुआ ; अर्थात् उसे मोक्ष लाभ करने का पूर्ण ज्ञान हो गया। रातके समय सार्थवाह फिर मुनियों के आश्रम में गया ; आज्ञा लेकर और गुरु महाराज को वन्दना करके उनके सामने बैठ गया। इसके बाद, धर्मघोष सूरि ने उसे, मेघकी जैसी वाणी द्वारा, . नीचे लिखी देशना दी : धर्मघोष सूरिका उपदेश । धर्मकी महिमा। ... “धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है। धर्म ही स्वर्ग और मोक्ष का दाता है। धर्म ही संसार रूपी वनको पार करने की राह दिखलाने .
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy