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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पवे
धन साथवाहका मुनिदान ।
सार्थवाह की ये बातें सुनकर सूरि ने कहा-“सार्थवाह ! मार्ग में हिंसक पशुओं और चोर डाकूओं से तुमने हमारी रक्षा की है। तुमने हमारा सब तरह से सत्कार किया है। तुम्हारे संघके लोगों ने हमें योग्य अन्नपानादि दिये हैं; इसलिए हमें किसी प्रकार का भी दुःख या क्लेश नहीं हुआ है। तुम हमारे लिए ज़रा भी चिन्ता या खेद मत करो।” सार्थवाह ने कहा--- "सत्पुरुष निरन्तर गुणों को ही देखते हैं; इसीसे, मेरे दोष सहित होने पर भी, आप मुझे ऐसा कहते हैं, यानी सदोष होनेपर भी मुझे निर्दोष मानते हैं। आप चाहें, जो कहें, मेरा तो अपने प्रमाद के कारण सिर नीचा हुआ जाता है। सचमुच ही, इस समय मैं अतीव लजित हूँ । अत: आप प्रसन्न हूजिये और साधुओं को मेरे पास आहार लाने को भेजिये, जिससे में इच्छानुसार आहार दूं।" सूरि बोले-“तुम जानते हो कि, वर्तमान योग द्वारा जो अन्नादिक अकृत, अकारित और अचित्त होते हैं, वे ही हमारे उपयोग में आते हैं।" सूरि के ऐसा कहने पर सार्थवाह ने कहा- “जो चीज़ आपके उपयोग में आयेगी, मैं उसे ही साधुओं को दूंगा।” यह कहकर धन-सार्थवाह अपने आवास-स्थान को चला गया। उसके पीछे-पीछे ही दोसाधु भिक्षा उपार्जनार्थ उसके डेरे पर गये; पर दैवयोगसे, उस समय, उसके घरमें साधुओंको देने योग्य कुछ भी नहीं था। वह इधर-उधर देखने लगा। एक जगह