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प्रथम पर्व
५५१ धादिनाथ-चरित्र छड़ीबरदारोंके दिखलाये हुए रास्तेसे, अन्तःपुरके मध्यमें रत्नोंके आदर्शगृहमें आये। वहाँ आकाश और स्फटिकमणिकी भांति निर्मल तथा जिसमें अपने सब अङ्गोंकी परछाई पूरी तरह दिखायी देती हो, ऐसे शरीर-प्रमाण :( कदआदम ) आईनेमें अपना रूप देखते हुए महाराजकी एक अङ्गलीमेंसे अंगूठी गिर पड़ी। जैसे मयूरके कलापमेंसे एक पल गिर जाने पर उसे इसकी खबर नहीं होती, वैसेही उस अंगूठीका गिरना भी महाराजको नहीं मालूम हुआ। क्रमसे शरीरके सब भागोंको देखते-देखते उन्होंने दिनमें चाँदनीके बिना फीकी पड़ी हुई चन्द्रकलाके समान अपनी मुद्रिकारहित अँगुलीको कान्ति-रहित देखा, "ओह ! यह अँगुली ऐसी शोभाहीन क्यों है ?” यह सोचते हुए भरत राजाने जमीन पर पड़ी हुई अँगूठी देखी, तब उन्होंने सोचा,-"क्या और-और अङ्ग भी आभूषणके बिना शोभा हीन लगते होंगे।”
यह ख़याल पैदा होते ही उन्होंने अन्य आभूषणोंको भी उनारना शुरू किया।
सबसे पहले उन्होंने सिर परसे माणिकका मुकुट उतारा। उतारते ही सिर भी अंगूठी बिना अँगुलीकी तरह मालूम पड़ने लगा। कानोंके माणिकवाले कुण्डल उतार दिये, तब वे भी चंद्र-सूर्यके बिना श्रीहीन दिखायी देनेवाली पूर्व और पश्चिम दिशाओंके समान मालूम पड़ने लगे। कण्ठाभूषण अलग करते ही ग्रीवा बिना जलके नदीकी भांति शोभाहीन मालूम पड़ने लगी। वक्षस्थलसे हार उतरने पर वह तारा-रहित आकाशकी