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'प्रथम पर्व
५४६ आदिनाथ-चरित्र" आसपास क्रीड़ा करने लगी। फिर तो मानो ऋतुदेवताओमें सेही कोई देवता आ गया हो, उसी प्रकार सर्वाङ्गमें फूलोंकेगहने पहने हुई उन स्त्रियों के मध्यमें महाराज भरत शोभित होने लगे।
किसी-किसी दिन वे भी अपनी स्त्रियोंको साथ लेकर राजहंसकी तरह क्रीड़ावापीमें स्वेच्छापूर्वक क्रीड़ा करनेके लिये जाने लगे। जैसे गजेन्द्र अपनी कामिनियों के साथ नर्मदा-नदीमें क्रीड़ा करता है, वैसेही वे भी उन सुन्दरियोंके साथ क्रीड़ा करने लगे। मानों उन सुन्दरियों की ही सिखलायी पढ़ायी हुई हों, ऐसी उस जलकी तरंगे कभी महाराजके कण्ठको, कभी भुजाओंको और कभी हृदयको आलिंगन करने लगी। उस समय कमलके कर्णाभरण और मोतियोंके कुण्डल पहने हुए महाराज जलमें साक्षात् वरुणदेवके समान शोभा पाने लगे, मानो लीलाविलासके राज्य पर उनका अभिषेक कर रही हो, इसी ढंगसे चे स्त्रियाँ, “मैं पहले मैं पहले" कहती हुई उनके ऊपर पानीके छींटे छोड़ रही थीं। उन्हें चारों ओरसे घेरे हुई जलक्रीड़ामें तत्पर उन रमणियों के साथ जो अप्सराएँ या जलदेवियांसी मालूम पड़ती थीं । महाराजने बड़ी देरतक जलक्रीड़ा को । अपनी होड़ करनेवाले कमलो को देखकर ही मानो उन मृगाक्षियों की आँखें कोपले लाल-लाल हो आयीं और उन अङ्गनाओ के अंगो से गिरे हुए घने अङ्ग-रागके कारण वह सारा जल यक्ष-कर्दमसा मालूम पड़ने लगा। इसी प्रकार वे अकसर क्रीड़ा किया करते थे।