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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
है: परन्तु मृत्यु पाकर मोक्षस्थानको प्राप्त होनेवालेके लिये शोक करना उचित नहीं । इसलिये हे राजा ! साधारण मनुष्योंकी तरह प्रभुके लिये शोक करते हुए क्या लज्जा नहीं आती ? शोक करनेचाले तुमको और शोचनीय प्रभुको देखते हुए यह शोक उचित नहीं है। जो एक बार प्रभुकी धर्म देशना सुन चुका है, उसे भी हर्ष या शोक नहीं व्यापता, फिर तुम तो न जाने कितनी बार देशना सुन चुके हो, तब तुम क्यों हर्ष-शोक से विचलित होते हो ? जैसे समुद्रका सूखना, पर्वतका हिलना, पृथ्वीका उलटना, वज्रका कुठित होना, अमृतका नीरस होना और चन्द्रमामें गरमी होना असम्भव है, वैसेही तुम्हारा यह रोना भी असम्मवसा ही मालूम पड़ता है । हे धराधिपति ! धैर्य धरो और अपनी आत्माको पहचानो; क्योंकि तुम तीनों लोकके स्वामी, परम धीर भगवान्के पुत्र हो ।" इस प्रकार घरके बड़े-बूढ़ेकी तरह इन्द्रके समझानेतुझ्यानेसे भरतराजाने जल जैसी शीतलता धारण की और अपने स्वाभाविक धैर्यको प्राप्त हुए ।
तत्पश्चात् इन्द्रने अभियोगिक देवताओंको, प्रभुके अंग - संस्कार के लिये सामग्री लानेकी आज्ञा दी। वे झटपट नन्दन-वनसे गोशीर्ष चन्दनकी लकड़ियाँ उठा लाये । इन्द्रके आज्ञानुसार देवताओंने पूर्व दिशामें प्रभुके शरीर-संस्कारके लिये गोशीर्ष - चन्दन - काष्ठ की एक गोलाकार चिता रचायी। इक्ष्वाकु कुलमें जन्म ग्रहण करनेवाले महर्षियोंके लिये दक्षिणदिशा में एक दूसरी त्रिकोणाकार
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चिता रची गयी | साथही अन्यान्य साधुओंके लिये पश्चिम दिशामें
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