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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व आकाशकी भाँति अनन्त जो आपका केवल-शान है, वह सदा सब जगह जय पाता है। हे नाथ! प्रमाद-रूपी निद्रामें पड़े हुए मुझसरीखे मनुष्योकेही लिये आप सूर्यकी तरह बारम्बार आते-जाते रहते हैं । जैसे समय पाकर ( जाड़ेके दिनोंमें) पत्थरकी तरह जमा हुआ घी भी आगको आँचसे पिघल जाता है, वैसेही लाखों जन्मों के उपार्जन किये हुए कर्म भी आपके दर्शनोंसे नष्ट हो जाते हैं । हे प्रभु! एकान्त 'सुखम्-काल' से तो यह 'सुख-दुःखम्-काल' ही अच्छा है, जिसमें कल्पवृक्षसे भी विशेषः फलके देनेवाले आप उत्पन्न हुए हैं। हे समस्त भुवनोंके स्वामी ! जैसे राजा गाँवों और भवनोंसे अपनी नगरीकी शोभा बढ़ाता है, वैसेही आप भी इस भुवनको भूषित करते हैं । जैसा हित माता-पिता, गुरु और स्वामी भी नहीं कर सकते, वैसा अकेला होनेपर भी अनेक-रूप होकर आप किया करते हैं। जैसे चन्द्रमासे रात्रि शोभा पाती है, हंसले सरोवर शोभा पाता है और तिलकसे मुखकी शोभा होती है, वैसेही आपसे यह सारा भुवन शोभा पाता है।
इस प्रकार विधि-पूर्वक भगवान्की स्तुति कर, विनयी राजा 'भरत अपने योग्य स्थानपर बैठ रहे ।”
इसके बाद भगवान्ने योजन-भरतक फैलती हुई और सब . भाषाओं में समझी जानेवाली वाणीमें विश्वके उपकारके लिये. देशना
दी। देशनाके अन्तमें भरतराजाने प्रभुको प्रणामकर, रोमाञ्चित शरीरके साथ हाथ जोड़े हुए कहा, "हे नाथ! जैसे इस भरत-खण्ड में आप विश्वका हित करते फिरते हैं, वैसे और कितने धर्म-चक्री