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प्रथम पर्व
५०७ आदिनाथ-चरित्र किया; क्यो कि हाथीका भार हाथी ही सहसकता है, दूसरेसे नहीं सहा जा सकता। नवें और दसवें तीर्थङ्करके बीचमें साधुका विच्छेद हुआ और इसी प्रकार उनके बाद सात प्रभुओंके बीचमें शासनका विच्छेद हुआ। उस समय भरत-चक्रवर्तीकी रची हुई अर्हन्त-स्तुति तथा यति एवं श्रावकोंके धर्मसे पूर्ण वेद आदि बदले गये। इसके बाद सुलस और याज्ञवल्क्य आदि ब्राह्मणोंने अनार्य वेदोंकी रचना की।
इन दिनों चक्रधारी राजा भरत, श्रावकोंको दान देते और कामक्रीडा सम्बन्धी विनोद करते हुए दिन बिता रहे थे। एक दिन चन्द्रमा जैसे आकोशको पवित्र करता है, वैसेही अपने चरणोंसे पृथ्वीको पवित्र करते हुए भगवान् आदीश्वर, अष्टापद-गिरि पर पधारे। देवताओंने तत्काल वहाँ समवसरणकी रचना की और उसीमें बैठकर जगत्पति देशना प्रदान करने लगे। प्रभुके वहाँ आनेकी बात संवाद-दाताओंने झटपट भरतराजाके पास जाकर कह सुनायी। भरतने पहलेकी ही भाँति उन्हें इनाम दिया। सच है, कल्पवृक्ष सदा दान देता है, तो भीक्षीण नहीं होता। इसके बाद अष्टापद-गिरिपर समवसरणमें बैठे हुए प्रभुके पास आ, उनकी प्रदक्षिणाकर नमस्कार करते हुए भरतराजाने उनकी इसप्रकार स्तुति की,–“हे जगत्पति ! मैं अज्ञ हूँ, तथापि आपके प्रभावसे मैं आपकी स्तुति करता हूँ; क्योंकि चन्द्रमाको देखनेवालोंकी दृष्टि मन्द होनेपर भी काम देने लगती है। हे स्वामिन् ! मोह-रूपी अन्धकारमें पड़े हुए इस जगत्को प्रकाश देनेमें दीपकके. समान और