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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
पाता है । हे त्रिभुवनेश्वर ! मैं तो यही मानता हूँ, कि आप जो चार घातीकर्मीका नाश कर, बाकी चार कर्मोंकी उपेक्षा करते हैं, वह लोगोंके कल्याण के निमित्त ही करते हो । हे प्रभु ! गरुड़ के पंखों के नीचे रहनेवाले पुरुष जैसे समुद्रको लाँघजाते हैं, वैसे ही आपके चरणोंमें लिपटे हुए भव्य जन इस संसार समुद्र को पार कर जाते हैं । हे नाथ ! अनन्त कल्याणरूपी वृक्षको उल्लसित करनेमें दोहद स्वरूप और मोहरूपी महानिद्रामें पड़े हुए विश्वके लिये प्रातःकाल के समान आपका दर्शन सदाही जय-युक्त है 1 आपके चरण कमलोंके स्पर्शसे प्राणियोंका कर्म-विदारण हो जाता है; क्योंकि चन्द्रमाको शोतल किरणोंसे भी हाथीके दाँत फूटते हैं । मेघोंसे भरनेवाली वृष्टिकी तरह और चन्द्रमाकी चाँदनीके समान ही, हे जगन्नाथ आपका प्रसाद सबके लिये समान है।
इस तरह प्रभुकी स्तुति कर, प्रणाम करनेके अनन्तर भरतपति सामानिक देवताकी भाँति इन्द्र के पीछे बैठ रहे । देवताओं के पीछे अन्य पुरुषगण बैठे और पुरुषों के पीछे स्त्रियाँ खड़ी हो रहीं। प्रभुके निर्दोष शासन में जिस प्रकार चतुर्विध-धर्म रहता है, उसी प्रकार समवसरध के पहले गढ़ में यह चतुर्विध-संघ बैठा । दूसरे गढ़में परस्पर विरोधी होते हुए भी सब जीव-जन्तु सहोदर भाइयोंकी तरह सहर्ष बैठ रहे। तीसरे किलेमें आये हुए राजाओंके हाथी-घोड़े आदि वाहन देशना सुननेके लिये कान ऊपर को उठाये हुए थे I फिर त्रिभुवनपतिने सब भाषाओं में प्रवर्त्तित