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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व
महाराज, आकाशके मध्यमें आनेवाले सूर्यकी भाँति महागज पर आरूढ़ हुए। भेरी, शङ्ख और नगाड़े आदिके उत्तम बाजोंके ऊंचे शब्दसे फव्वारेके जलके समान आकाशको व्याप्त करते हुए, हाथियोंके मद-जलसे दिशाओंको पूर्ण करते हुए, तरंगोंसे आच्छा. दित समुद्रकी तरह तुरङ्गोंसे पृथ्वीको आच्छादित करते हुए
और कल्पवृक्षसे युक्त युगलियोंके समान हर्ष और त्वरा (जल्दी) से युक्त महाराज, थोड़ी देर में अन्तःपुर और परिवारके लोगोंके साथ अष्टापदमें आ पहुंचे।
जैसे संयम स्वीकार करनेकी इच्छा रखनेवाला पुरुष गृहस्थ धर्म से उतर कर ऊँचे चरित्र-धर्मपर आरूढ़ होता है, वैसेही महागज से उतर कर महाराज उस महागिरि पर चढ़े। उत्तर दिशावाले द्वारसे समवसरणके भीतर प्रवेश करतेही उन्होंने आनन्द-रूपी अंकुर उत्पन्न करनेवाले मेघके समान प्रभुको देखा । प्रभुकी तीन बार प्रदक्षिणा कर, उनके चरणोंमें नमस्कार कर, हाथोंकी अंजलि बना, सिरसे लगाकर भरतने उनकी इस प्रकार स्तुति की,"हे प्रभु! मेरे जैसे मनुष्यका आपकी स्तुति करना, घड़ेसे समुद्र का पान करनेके समान है। तथापि मैं आपकी स्तुति करता हूँ, क्योंकि मैं भक्तिके कारण निरंकुश हूँ। हे प्रभो ! जैसे दीपकके सम्पर्कसे बत्ती भी दीपक ही कहलाती है, बसेही आपके आश्रित भव्यजन भी आपके तुल्य ही हो जाते हैं। हे .स्वामिन् ! मदसे उन्मत्त इन्द्रियरूपी हाथियों का मद उतारनेमें औषधिके समान और सच्चे मार्गको बतलानेवाला आपका शासन सर्वत्र विजय