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प्रथमः पर्व
आदिनाथ चरित्र
खड़ी रहीं और उनके पीछे उन्हींकी सी साध्वियों का समूह खड़ा था । भुवनपति, ज्योतिषी और व्यन्तरोंकी स्त्रियाँ, दक्षिण-द्वार से प्रवेश कर, पूर्व विधिके अनुसार प्रदक्षिणा और नमस्कार कर, नैऋत- दिशामें बैठीं और इन तीनों श्रेणियोंके देव, पश्चिम द्वारसे प्रवेश कर, उसी प्रकार नमस्कार कर क्रमसे वायव्य दि -शामें बैठे। इस प्रकार प्रभुको समवसरणमें आया हुआ जान कर, अपने बिमानोंके समूहसे आकाशको आच्छादित करते हुए इन्द्र वहाँ तत्काल आ पहुँचे । उत्तर द्वारसे समवसरण में प्रवेश कर, स्वामीको तीन प्रदक्षिणा दे, नमस्कार कर, भक्तिमान इन्द्र इस प्रकार स्तुति करने लगे, – “हे भगवन् ! जब बड़े-बड़े योगी भी आपके गुणोंको ठीक-ठीक नहीं जानते, तब आपके उन स्तुति योग्य गुणोंका मैं नित्य प्रमादी होकर कैसे बखान करूँ ? तो भी हे नाथ! मैं यथाशक्ति आपके गुणों का बखान करूँगा क्योंकि लँगड़ा आदमी भी लम्बी मंज़िल मारनेके लिये तैयार हो जाये, तो उसे कोई रोक थोड़े ही सकता है ? हे प्रभो ! इस संसाररूपी आता पके तापसे परवश बने हुए प्राणियोंको आपके चरणोंकी छाया, छत्रछायाका काम देती है, इसलिये आप मेरी रक्षा करें 1 हे नाथ! सूर्य जैसे केवल परोपकारके ही लिये उदय होता है, बैसेही केवल लोकोपकारके ही लिये आप विहार करते हैं, इस लिये धन्य हैं। मध्याह्न - कालके सूर्यकी तरह आप प्रभुके प्रकट होनेपर देहकी छायाकी भाँति प्राणियोंके कर्म चारों ओरसे संकुचित हो जाते हैं। जो सदा आपके दर्शन करते रहते हैं, वे पशु
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