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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र
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ऊँचा चैत्य-वृक्ष बनाया। उस चैत्य-वृक्षके नीचे अपनी किरणों से मानों वृक्षको मूलसे ही पल्लवित करता हुआ एकः रत्नमय पीठ बनाया और उस पीठ पर चैत्य-वृक्षकी शाखाओंके पल्लवोंसे बारबार स्वच्छ होता हुआ एक रत्नच्छन्द बनाया । उसके मध्य में पूर्वकी ओर विकसित कमलकी कलीके मध्य में कर्णिकाकी तरह - पादपीठ सहित एक रत्न - सिंहासन तैयार किया और उस पर गङ्गाकी तीन धाराओंके समान तीन छत्र बनाये । इस प्रकार वहाँ देवों और असुरोंने झटपट समवसरण बनाकर रख दिया, मानों वे पहले से ही सब कुछ तैयार रखे हुए हो अथवा कहींसे उठा लाये हों।
जगत्पतिने भव्य - जनोंके हृदयकी तरह मोक्षद्वार-रूपी इस समवसरण में पूर्व दिशाके द्वारसे प्रवेश किया। पहुँचते ही उन्होंने उस अशोककी प्रदक्षिणा की, जिसके डालके अन्तमें निकलने'वाले पलवों को उन्होंने कर्ण-भूषण बना रखा था । इसके बाद : पूर्व दिशा की ओर आ, “ नमस्तीर्थाय” कह कर, जैसे राजहंस कमल पर आ बैठे, वैसेही वे भी सिंहासन पर आ विराजे । तकाल ही शेष तीनों दिशाओंके सिंहासनों पर व्यन्तर देवोंने भग• वानके तीन रूप बना रखे। फिर साधु, साध्वी और वैमानिक देवताओं की स्त्रियोंने पूर्व-द्वारसे प्रवेश कर, प्रदक्षिणा करके भक्ति"पूर्वक जिनेश्वर और तीर्थको नमस्कार किया और प्रथम, गढ़में प्रथम धर्म रूपी उद्यानके वृक्षरूप साधु, पूर्व और दक्षिण दिशाके बीचमें बैठे। उसी प्रकार पृष्ठ-भागमें वैमानिक देवताओंकी स्त्रियाँ
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