________________
आदिनाथ चरित्र
४८६
प्रथम पर्व
"यह देखो !
फिर प्रभुके पास आकर धर्म-कथा श्रवण करने लगा। उसके 'चले जाने पर मरिचिने अपने मनमें विचार किया, इस स्वकर्म - दूषित पुरुषको स्वामीकी धर्म-कथा भी नहीं रुवी 1 बेचारे चातकको सारा सरोवर ही मिल जाये, तो उसको इस से क्या होता है ?"
थोड़ी देर में कपिल फिर मरिचिके पास आकर कहने लगा,"क्या तुम्हारे पास ऐसा-वैसा भी धर्म नहीं है ? यदि नहीं है,.. तो तुम व्रत काहेका लिये हुए हो ।”
. इसी समय मरिचिने अपने मनमें विचार किया, " दैवयोग से यह कोई मेरे जैसा मुड्ढ मिला है। बहुत दिनों पर यह जैसे को तैसा मिला है, इसीलिये अब मैं निःसहायसे सहायवाला हो गया ।" ऐसा विचार कर उसने कहा, "वहाँ भी धर्म है और यहाँ भी धर्म है ।" बस, इसी एक दुर्भाषणके ऊपर उसने कोटानुकोटि रोम उत्कट प्रपञ्च फैलाया। इसके बाद उसने उसको दीक्षा दी और अपना सहायक बना लिया 1 बस, उसी दिन से परिव्राजकताका पाखण्ड शुरू हुआ ।
विश्वोपकारी भगवान् ऋषभदेवजी ग्राम, खान, नगर, द्रोणमुख, करवट, पत्तन, मण्डप, आश्रम और जिले- परगनोंसे भरी हुई पृथ्वीमें विचरण कर रहे थे । विहार करते समय वे चारों दिशाओं में सौ योजन तकके लोगोंका रोग निवारण करते हुए वर्षाकालके मेघोंकी तरह जगत् के जन्तुओंको शान्ति प्रदान कर रहे थे । राजा जिस प्रकार अनीतिका निवारण कर, प्रजाको