________________
प्रथम पर्व
४७३ आदिनाथ चरित्र टुकड़ेकी तरह योंही क्रीडा-पूर्वक इसे आकाश में उड़ा दू ? बालक के नालकी तरह इसे लेकर पृथ्वीमें गाड़ दूँ ? चञ्चल चिड़िया के बच्चे की तरह हाथसे पकड़ लूँ ? मारने योग्य अपराधीको भांति इसे दूरहीसे छोड़ दूं ? अथवा चक्कीमें पड़े हुए किनकोंकी तरह इसके अधिष्ठाता हज़ारों यक्षोंको इस दण्डसे दल-मसल दूँ ? अच्छा, रहो, मैं इन कामोंको अभी न कर, पहले इसके पराक्रमकी परीक्षा तो लूँ।" वह ऐसा सोचही रहे थे, कि उस चक्रने बाहुबलीके पास.आकर ठीक उसी तरह उनकी तीन बार प्रदक्षिणा की, जैसे शिष्य गुरुकी करता है । चक्रीका चक्र जब सामान्य सगोत्री पुरुष पर भी नहीं चल सकता, तब उनकेसे चरम-शरोरी पर कैसे अपना ज़ोर आज़माये ? इसीलिये जैसे पक्षी अपने घोंसलेमें चला आता है और घोड़ा अस्तबलमें, वैसेही वह चक्र लौट आकर भरतेश्वरके हाथके ऊपर बैठ रहा।
“भारनेकी क्रियामें विषधारी सर्पके समान एकमात्र अमोधअस्त्र एक यही चक्र था। अब इसके समान दूसरा कोई अस्त्र इनके पास नहीं है, इसलिये दण्डयुद्ध होते समय चक्र छोड़नेवाले इस अन्यायी भरत और इसके चक्रको मैं मारे मुष्टि-प्रहारके ही चूर्ण कर डालू," ऐसा विचार कर, सुनन्दा-सुत बाहुबली क्रोध से भरकर यमराज की तरह भयंकर चूसा ताने हुए चक्कवर्ती पर लपके। सूडमें मुद्गर लिये हुए हाथोकी तरह चूसा ताने हुए बाहुबली दौड़ कर भरतके पास आये; पर जैसे समुख