________________
आदिनाथ-चरित्र
४७२
प्रथम पर्व पित कर दिया। उसीके विश्वाससे अपनेको चक्रवर्ती मानते हुए चक्रवर्ती भरत, उसी प्रकार उस चक्रको आकाशमें घुमाने लगे, जैसे बवंडर कमलकी रजको आसमानमें नचाता है। ज्वालाओंके जालसे विकराल बना हुआ वह चक्र मानों आकाशमें ही पैदा हुई कालानि, दूसरी वड़वाग्नि, अकस्मात् उत्पन्न हुई व. जाग्नि, उन्नत उल्का-पुञ्ज, गिरता हुआ सूर्य-बिम्ब अथवा बिजली का गोलासा घूमता मालूम पड़ने लगा। अपने ऊपर छोड़नेके लिये उस चक्रको घुमानेवाले चक्रवर्तीको देखकर बाहुबलीने अपने मनमें विचार किया,- "अपनेको श्रीऋषभस्वामीका पुत्र माननेवाले भरत राजाको धिक्कार है- साधही इनके क्षत्रियव्रतको भी धिक्कार हैं ; क्योंकि मेरे हाथमें दण्ड होने पर भी इन्होंने चक्र धारण किया। देवताओंके सामने इन्होंने उत्तम युद्ध करनेको प्रतिज्ञा की थी, पर अपनी इस काररवाईसे इन्होंने बालकोंकी तरह अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी। इसलिये इन्हें धिक्कार है। जैले तपस्वी आने तेजका भय दिखलाते हैं, वैलेही ये भी चक्र दिखलाकर सारी दुनियाकी तरह मुझे भी डरवाना चाहते हैं; पर जैसे इन्हें अपनी भुजाओंके बलकी थाह मिल गयी, वैसे ही इस चक्रका पराक्रम भी भली भाँति मालूम कर लेंगे।" वे ऐसासोचही रहे थे, कि राजा भरतने सारा जोर लगाकर उनपर चक्र छोड़ दिया। चक्रको अपने पास आते देख, तक्षशिालाधिप्रतिने सोचा,- "क्या मैं टूटे हुए बर्तनकी तरह इस चक्रको तोड़ डालू गेंदकी तरह इसे उछाल कर फेंक हूँ ? पत्थर के