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________________ प्रथम पर्व ४५६ आदिनाथ-चरित्र तदनन्तर गीत गानेवाले जैसे पहले कहे हुए टेक पर (ध्रुवपद) फिर लौट आते हैं, वैसेही चक्रवर्ती फिर हाथी पर बैठ कर रणभूमिमें आये। गङ्गा और यमुनाके बीचमें जैसे वेदिका का भाग सोहता है, वैसेही दोनों सेनाओंके बीचमें विपुल भूमितल शोभा दे रहा था। जगतका संहार होते-होते रुक गया, यही सोचकर प्रसन्न हुई वायु न जाने किसकी प्रेरणासे धीरे-धीरे पृथ्वीकी धूलको उड़ाकर जगह साफ करने लगी। समवसरण की भूमिकी तरह उस रणभूमिको पवित्र जाननेवाले देवताओंने सुगन्धित जलकी वृष्टिसे सींचना शुरू किया और जैसे मांत्रिक पुरुष मण्डलकी भूमि पर फूल छोड़ता है, वैसेही रणभूमि पर खिले हुए फूल बरसाये। तदनन्तर गजकी तरह गर्जन करते हुए दोनों राजकुञ्जर हाथी परसे उतरकर रणभूमिमें आये । मस्तानी चालसे चलनेवाले वे महापराक्रमी वीर पग-पग पर कूर्मेन्द्र के प्राणोंको संशयमें डालने लगे। पहले दृष्टि-युद्ध करनेकी प्रतिज्ञा कर, दूसरे शक और ईशानइन्द्रकी तरह वे दोनों निर्निमेष नेत्र किये हुए आमने-सामने खड़े हो रहे । रक्त नेत्रवाले वे दोनों वीर सम्मुख खड़े होकर एक दूसरेका मुंह देखने लगे; उस समय वे ऐसे शोभित हुए, मानों सायंकालके समय आमने-सामने रहनेवाले सूर्य और चन्द्रमा हों। बड़ी देरतक वे दोनों वीर ध्यान करनेवाले योगियोंकी भाँति निश्चल नेत्र किये स्थिर खड़े रहे । अन्तमें सूर्य की किरणोंसे आक्रांत नील कमलके समान ऋषभस्वामीके ज्येष्ठ पुत्र भरतके नेत्र मिंच
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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