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प्रथम पर्व
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. आदिनाथ - चारत्र
बड़ेको वैसा ही आचरण भी करना चाहिये ।
भाइयोंको राज्य
से दूर करके उन्होंने अपना बड़प्पन भली भाँति दिखला दिया हैं । जैसे कोई धोखे से पीतलको सोना और काँचको मणि समझ ले, वैसेही मैं भी अबतक भ्रममें पड़ा हुआ उन्हें बड़ा समझ रहा था। यदि पिता अथवा वंशके किसी अन्य पूर्व- पुरुषने किसीको पृथ्वी दान की हो, तो जबतक वह कोई अपराध नहीं करता, तबतक कोई अल्प राज्यवाला राजा भी उससे बह दानकी हुई पृथ्वी वापिस नहीं लेता । फिर भरतने भाइयोंके राज्य क्यों छीन लिये ? छोटे भाइयोंका राज्य हरण कर निश्चय ही वे लज्जित नहीं हुए, इसीसे तो अब मेरे राज्यको जीत लेनेकी इच्छासे मुझे भी बुला रहे हैं । जैसे नौका समुद्र पार करके किनारे आ लगते. न लगते किसी पर्वतसे टकरा जाती है, वैसे ही सारे भरतक्षेत्रको जीतने बाद ये मेरे साथ टक्कर लेने आये हैं। लोभी, मर्यादाहीन और राक्षसके समान निर्दय भरतराजको जब मेरे छोटे भाइयोंने ही शर्मके मारे अपना प्रभु नहीं माना, तब मैं ही उनके किस गुणपर रीझ कर उनके वशमें हो जाऊ ? हे देवताओ ! आप लोग सभासदों की तरह मध्यस्थ होकर विचार करें। यदि भरतराज अपने पराक्रमसे मुझे वशमें कर लेना चाहते हैं, तो भले ही कर देखें, क्योंकि यह तो क्षत्रियोंका स्वाधीन मार्ग ही है। लेकिन इतने पर भी यदि वे समझ बूझ कर पीछे लौट जायें, तो बड़े मजे से जा सकते हैं 1 मैं उनकी तरह लोभी नहीं हूँ, कि उनके पीछे लौटनेकी राहमें अड़ङ्गा लगाऊँ। आप जो यह कह रहे हैं, कि