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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पत्र
वह नहीं आया। मैंने सोचा, यह उसके मंत्रियोंके विचारका रोष होगा । मैंने उसे किसी लोभसे या उसपर क्रोध करके नहीं बुलवाया था, पर चूँकि जबतक एक भी राजा सिर ऊँचा किये रहेंगा, तबतक चक्र नगरमें प्रवेश नहीं करेगा। ऐसी हालत में मैं क्या करूँ ? इधर चक्र नगर में नहीं प्रवेश करता, उधर बाहुबली मेरे आगे सिर नहीं झुकाता, इससे मुझे तो ऐसा मालूम होता 'है, कि इन दोनों में होड़सी लगी हुई है । मैं इसी संकट में पड़ा
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हूँ । यदि मेरा भनस्वी भाई एक वार मेरे पास आये और अतिशिकासा सत्कार ग्रहण करे, तो मैं उसको मनमानी पृथ्वो दे हूँ । इसलिये इस चक्रके नहीं प्रवेश करने के सिवा मेरे युद्ध करनेका कोई दूसरा कारण नहीं है । मैं अपने उस छोटे भाइखे मान - पाने की इच्छा भी नहीं करता ।
देवताओं ने कहा, "राजन ? संग्रामका कारण बहुत बड़ा होना चाहिये, क्योंकि आपकेसे पुरुषों को छोटे-मोटे कारणोंसे ऐसी प्रकृत्ति नहीं होनी चाहिये। अब हमलोग बाहुबलीके पास जाकर उन्हें भी समझायेंगे और इस युगान्त के समय होनेवाले जनक्षयके समान लोक संहारको रोकने की चेष्टा करेंगे । कदाचित् वे भी आपकी ही तरह इस युद्धका कोई दूसरा कारण बतलायें, तो भी आपको यह अधम युद्ध नहीं करना चाहिये । महान् पुरुष तो दृष्टि, बाहु और दण्ड आदि उत्तम आयुधोंसे ही युद्ध करते हैं, जिससे निरपराध हाथियों आदिका बध न हो ।”
भरत चक्रवतीने देवताओंकी यह बात स्वीकार करली और