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प्रथम पर्व
४४७ आदिनाथ-चरित्र महाराज भरत मेघकी सी गंभोर गिरामें बोले,- 'हे देवताओं ! आप लोगोंके सिवा विश्वके हितकी बात और भला कौन कह सकता है ? अधिकतर लोग तमाशा देखनेकी इच्छासे ऐसे २ मामलोंमें उदासीन हो रहते हैं, आप लोगोंने हितकी इच्छासे इस लड़ाईके छिड़नेका जो कारण अनुमान किया है, वह वस्तुतः कुछ और ही है। यदि कोई किसी कामका मूल जाने बिना तर्कसे ही कोई बात कह दे, तो वह भले ही वृहस्पति क्यों न हो, पर उसकी बात बिलकुल बेकार होती है। "मैं बड़ा बलवान हूँ, यही सोचकर मैंने सहसा यह लड़ाई नहीं छेड़ी: क्योंकि चाहे कितना भी अधिक तेल क्यों न हो; पर उससे पर्वतके शरीरका अभ्यङ्ग नहीं किया जाता। भरतक्षेत्रके छहों खण्डोंके सव राजाओंकों जीतनेवाले मुझ भरतका कोई प्रतिस्पर्धी न हो, ऐसी बात नहीं है; क्योंकि शत्रुकी तरह प्रतिस्पर्धा करने वाले तथा जय-पराजयके कारणभूत इस बाहुबलीके ओर मेरे वीचमें विधिवशात् अनबन हो गयी है। पहले तो यह निन्दासे डरने वाला, लज्जाशील, विवेकी, विनयी और विद्वान् बाहुवली मुझे पिताके समान मानता था ; परन्तु साठ हजार वर्ष बाद दिग्विजय करके आनेपर मैं तो देखता हूँ, कि वह कुछका कुछ हो गया है। हम दोनों बहुत कालतक अलग-अलग रहे यही इसका कारण मालूम पड़ता है। बारह बर्षतकराज्याभिषेकका उत्सव होता रहा परं बाहुबली एकवार भी नहीं आया। मैंने सोचा, बह भूल गया होगा । इसीलिये मैंने उसके पास दूत भेजा; पर इसपर भी