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प्रथम पर्व
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सी प्रवृत्ति रखनेवाले, दूसरोंसे अभेद्य और अपनेही अंशके समान उनके राजकुमारों, मन्त्रियों और वीरपुरुषों से घिरे हुए राजा बाहुबली देवताओंसे घिरे हुए इन्द्र की तरह शोभित होने लगे मानो उनके मनमेंही बसे हों, ऐसे लाखों योद्धा - कुछ हाथियोंपर, कितनेही घोड़ोंपर, कितनेही रथोंपर सवार हो, तथा कितनेही पैदल बाहर निकले । बलवान् और ऊँचे-ऊँचे अस्त्रोंवाले अपने वीरोंसे एक वीरमयी पृथ्वीकी रचना करते हुए अचल निश्चय वाले बाहुबली चल पड़े। विभागरहित जयको इच्छा रखनेवाले उनके वीर सुभट, “मैं अकेला ही शत्रुको जीत लूँगा,” ऐसा एक दूसरेसे कह रहे थे । रोहणाचल पर्वत के सभी पत्थर जैसे मणिमय होते हैं, वैसेही उस सेनामें बाजे बजानेवाले भी अपनेको कीर ही समझ रहे थे। उनके माण्डलिक राजाओं के चन्द्रमाकी सी कान्तिवाले छत्र - मण्डलसे आकाश श्वेत कमलमय दीखने लगा । हरएक पराक्रमी राजाको देखकर उन्हें अपनी भुजाके समान मानहुए वे आगे-आगे चलने लगे । राहमें चलते हुए राजा बाहुबली अपनी सेनाके भारसे पृथ्वोका और बाजोंकी ध्वनिसे आकाशको फाड़ने लगे। उनके देशकी सीमा दूर थी; तोभी वे तत्काल वहाँ आ पहुँचे । क्योंकि रणके लिये उत्कण्ठित वीरपुरुषगण वायुसे भी अधिक वेगवान् हो जाते हैं। भरतराजके पड़ाव से न बहुत दूर न बहुत निकट, गङ्गाके तटपर बाहुबलीने पड़ाव डाला ।
प्रातःकाल चारण भाटोंने अतिथिकी भाँति उन दोनों ऋषभ
आदिनाथ चरित्र
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