________________
आदिनाथ-चरित्र
४३०
प्रथम पर्व की इच्छा करनेवाले ये राजा मानों उँगली पर मेरुपर्वत उठाने जा रहे हैं, इस युद्ध में छोटे भाईने कहीं बड़ेको जीत लिया अथवा बड़ेनेही छोटेको परास्त कर दिया,, तो दोनोंही अवस्थाओंमें महाराजको ही भारी अपयश प्राप्त होगा।" .
सैन्योंकी उड़ायी हुई धूलकी बाढ़से विन्ध्याचलकी वृद्धिकी तरह चारों ओर अन्धकार फैलाते; अश्वोंके ह्रषारव, गजोंके गर्जन, रथोंके चीत्कार और योद्धाओंके कराघातों इन चारों प्रकार के शब्दोंसे नगाड़ेके शब्दकी तरह दिशाओंको नादमय करते; ग्रीष्म ऋतुके सूर्यकी तरह रास्तेकी नदियोंकोसोखते; उत्कट पवनकी भांति मार्गके वृक्षोंको उखाड़कर फेकते ; सेनाकी ध्वजाओंके वस्त्रसे आकाशको बगुलोंसे भरा हुआ बनाते ; सैन्यके भारसे दबी हुई पृथ्वीको हाथियोंके मदसे शान्त करते और प्रतिदिन चक्रके बतलाये हुए रास्तेपर चलते हुए महाराज उसी प्रकार बहलोदेशमें आ पहुँचे, जैसे सूर्य दूसरी राशिमें संक्रमण करता है। उस देशकी सीमाके पास पहुँचकर उन्होंने पड़ाव डाला और समुद्रकी तरह मर्यादा बाँधकर वहीं टिक रहे।
इसी समय सुनन्दाके पुत्र बाहुबलीने राजनीति रूपी भवनके स्तम्भ-स्वरूप चरोंके मुँहसे चक्रवर्तीके आनेका समाचार सुना। सुनतेही उन्होंने भी अपनी प्रतिध्वनिसे स्वर्गको भी शब्दायमान करनेवाली दुन्दुभि बजायी। प्रस्थानही कल्याणकारी हो, इस लिये उन्होंने मूर्तिमान कल्याणकी तरह भद्र-गजेन्द्रके ऊपर उत्साह की तरह सवारी की। बड़े बलवान बड़े उत्साही, कार्यमें एक