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प्रथम पर्व
४१५ आदिनाथ-चरित्र निर्भय हूँ। गुरुजनमें विनय-भक्ति रखना प्रशंसनीय है, इसमें सन्देह नहीं ; पर वह गुरु भी दरअसल गुरु (श्रेष्ठगुणयुक्त) हो : पर गुरुके गुणोंसे रहित गुरुजनमें विनय-भक्ति रखना उलटा लज्जा-जनक है। गर्वयुक्त, कार्याकार्यके नहीं जाननेवाले
और बुरी राह पर चलनेवाले गुरुजनोंका त्याग ही करना उचित है। मैंने क्या उनके हाथी-घोड़े छीन लिथे हैं या उनके नगर आदिको ध्वंस कर डाला है, जो तू कहता है, कि वे मेरे अविनय को अपने सर्वंसह स्वभावके कारण सहन कर रहे हैं ? दुर्जनोंके प्रतिकारके लिये भी मैं वैसे कार्योंमें प्रवृत्त नहीं होता ; फिर विचार कर कार्य करने वाले सत्पुरुषोंको क्या दुष्टोंके कहनेसे ही दूषण लग जायेगा? अभी तक मैं उनके पास नहीं आया, इस बातसे उदास होकर क्या वह कहीं चले गये हैं, जो मैं उनके पास जाऊँ ? भूतकी तरह बहाना ढूंढनेवाले भरतपति, सर्वत्र अप्रमत्त और अलुब्ध रहनेवाले मुझमें कौनसा दोष दूँढ़ निकालेंगे ? उनका कोई देश या दूसरी कोई वस्तु मैंने नहीं ली, फिर वे मेरे स्वामी कैसे हुए ? हमारे और उनके स्वामी तो मृषभस्वामी हैं ; फिर वे मेरे स्वामी किस तरह हुए ? मैं तो स्वयं तेजकी मूर्ति हूँ, फिर मेरे वहाँ पहुँचने पर उनका तेज कैसे रहेगा ? कारण, सूर्यका उदय होने पर अग्निका तेज मन्द हो जाता है। जो राजा स्वयं स्वामी होते हुए भी उन्हें स्वामी मानकर उनकी सेवा करते हैं, वे असमर्थ हैं ; तभी तो वे उन दरिद्र राजाओं पर निग्रह और अनुग्रह करनेको समर्थ हैं।