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प्रथम पर्व
३८१ आदिनाथ-चरित्र भेंट करने लगे। क्योंकि हर्घ ऐसा ही बलवान है। राजा हस्तीके कुम्भस्थलमें अंकुशकी ताड़ना करके उसे हर मंचके सामने खड़ा रखते थे। उस समय दोनों तरफके मंचोंके ऊपर, आगे खड़ी हुई सुन्दरी रमणियाँ एक साथ कपूरसे चक्रवर्ती की आरती उतारती थीं। दोनों तरफ आरती होनेसे, महा. राज दोनों ओर सूर्य-चन्द्र धारण करने वाले मेरु पर्वतकी शोभा को हरण करते थे। अक्षतोंके साथ मोतियोंसे भरे हुए थाल ऊँचेकर चक्रवर्तीको बधाई देनेके लिए दूकानोंके आगे खड़े हुए वणिक लोग उनको दृष्टिसे आलिङ्गन करते थे। राजमार्ग की बड़ी बड़ी हवेलियोंके दरवाज़ोंमें खड़ी हुई कुलीन स्त्रियों के किये हुए मांगलिकको महाराज अपने बहनोंके किये हुए मांगलिककी तरह मानते थे। दर्शनोंकी इच्छासे पीड़ित कितने ही लोगोंको देखकर, वे अपना अभयप्रद हाथ ऊंचा करके छड़ीदारोंसे उनकी रक्षा करवाते थे। इस तरह चलते-चलते महाराजने अपने पिताके सतमञ्जिले महलमें प्रवेश किया। उस महलके आगेकी जमीनमें राजलक्ष्मीके क्रीडापर्वत-जैसे दो हाथी बंधे थे। दो चकवोंसे जिस तरह जल-प्रवाह शोभता है, उसी तरह दो सोनेके कुलढों से उस महलका विशाल द्वार सुशोभित था और इन्द्रनीलमणिसे बने हुए कंठाभरणकी तरह, आमके पत्तोंके मनोहर तोरण बन्दनवारोंसे वह राजमहल शोभता था। उसमें कितनी ही जगह मोतियोंसे, कितनी ही जगह कपूरसे और कितनी ही जगह चन्द्रकान्तमणिसे, स्वस्तिक