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प्रथम पर्व
३११ ओदिनाथ-चरित्र वगैर: साध्वियों, भरत आदि श्रावकों और सुन्दरी प्रभृति श्राविकाओं से उस समय चार तरह के संघकी व्यवस्था आरम्म हुई जो धर्मके एक श्रेष्ठ ग्रहके रूप में आजतक चली जाती है। उस समय प्रभुने गणधर नाम कर्मवाले ऋषभसेन आदि चौरासी सद् बुद्धिमान् साधुओं को, जिसमें सारे शास्त्र समाये हुए हैं, ऐसी उत्पात, विगम और ध्रौव्य नामकी त्रिपदी का उपदेश दिया। उन्हों ने उस त्रिपदी के अनुसार अनुक्रम से चतुर्दश पूर्व और द्वादशाङ्गी रची। इसके बाद देवताओं से घिरा हुआ सुरपतिइन्द्र, दिव्यचूर्ण से भरा हुआ एक थाल लेकर, प्रभुके चरणोंके पास आकर खड़ा हुआ, तब प्रभुने खड़े हो कर अनुक्रम से उनके ऊपर चूर्णक्षेप कर-चूर्ण फैक कर, सूत्र से, अर्थ से, सूत्रार्थ से द्रव्य , गुण से, पर्याय से, और नय से उन को अनुयोगकी अनुज्ञा दी तथा गुणकी अनुमति भी दी। इसके बाद देवता, मनुष्य और उनकी स्त्रियोंने, दुदुभि की ध्वनिके साथ, उन पर चारों ओर से वासक्षेप किया। मेघके जलको ग्रहण करने वाले वृक्ष की तरह प्रभु की वाणी को ग्रहण करने वाले सब गणधर हाथ जोड़े खड़े रहे। तब प्रभुने पहले की तरह पूर्वाभिमुख सिंहासन पर बैठ कर, फिर शिक्षापूर्ण धर्म-देशना या धर्मोपदेश दिया। उस समय प्रभु रूपी समुद्र में से उत्पन्न हुई देशना रूपी उद्दामवेलाकी मर्यादा के जैसी पहली पौरुषी पूरी हुई।