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________________ आदिनाथ-चरित्र २६८ प्रथम पर्व इस अवसर्पिणी कालमें जन्मे हुए लोग रूपी पद्माकर को सूर्य-समान आपके दर्शनोंसे मेरा अन्धकार नाश होकर प्रभात हुआ है। हे नाथ ! भव्य जीवोंके मन रूपी जलको निर्मल करने की क्रिया में निर्मली जैसी आपकी वाणी की जय हो रही है। हे करुणा के क्षीरसागर ! आपके शासन रूपी महारथमें जो चढ़ते हैं, उनके लिए लोकान-मोक्ष दूर नहीं है। निस्कारण जगत्बन्धु ! आप साक्षात् देखने में आते हैं, इस लिये हम इस संसारको मोक्ष से भी अधिक मानते हैं। हे स्वामी! इस संसार में निश्चल नेत्रों से, आपके दर्शन के महानन्द रूपी झरने में हमें मोक्ष-सुखके स्वाद का अनुभव होता है। हे नाथ! रागद्वेष और कषाय प्रभृति शत्रुओं द्वारा सँधै हुए इस जगत् को अभयदान देने वाले आप सैंधन से छुड़ाते हैं । हे जगदीश! आप तत्व बताते हैं, राह दिखाते हैं, आप ही इस संसार की रक्षा करते हैं, अत: मैं इससे अधिक और क्या माँगू ? जो अनेक प्रकार के युद्ध और उपद्रवों से एक दूसरे के गांवों और पृथ्वी को छीन लेने वाले हैं, वे सब राजा परस्पर मित्र होकर आपकी सभामें बैठे हुए हैं। आपकी सभामें आया हुआ यह हाथी अपनी सूंड से केसरी सिंह की सूड को खींच कर अपने कुम्भस्थलों को बारबार खुजाता है। यह भैंस दूसरी भैंस की तरह, मुहव्वत से, बारम्बार इस हिनहिनाते हुए घोड़े को अपनी जीभ से साफ करती है। लीला से अपनी पूँछ को हिलाता हुआ यह हिरन कान खड़े करके और मुखको नीचा करके अपनी नाक से इस व्याघ्र के मुहको सूंघता
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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