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प्रथम पर
आदिनाथ-चरित्र थंकरपने की लक्ष्मी अपनी आँखों से देखी। उसके देखने से जो आनन्द उत्पन्न हुआ, उससे मरूदेवा देवी तन्मय हो गई। तत्काल समकाल में अपूर्व करण के क्रमसे क्षपक श्रेणी में आरूढ़ हो, श्रेष्ट कर्मको क्षीण कर केवल ज्ञान को प्राप्त हुई और उसी समय आयु पूरी हो जाने से अन्तकृतकेवली हो, हाथीके कन्धे पर ही अव्ययपद-मोक्ष-पद को प्राप्त हुई। इस अवसर्पिणीकालमें मरूदेवा पहली सिद्ध हुई। उनके शरीरका सत्कार कर देवताओंने उसे क्षीर सागरमें फेंक दिया। उसी समय से इस लोकमें मृतक-पूजा आरम्भ हुई। क्योंकि महात्मा जो कुछ करते हैं, वही आचार होजाता है। माता मरुदेवाकी मुक्ति हो गई यह जानकर मेघ की छाया और सूरज की धूपसे मिले हुए शरद ऋतुके समयके समान हर्ष और शोकसे भरत राजा व्याप्त हो उठे। इसके बाद, उन्होंने राज्य चिह्न-त्याग, परिवार सहित पैदल चलकर, उत्तर के दरवाजे से समवसरण में प्रवेश किया। वहाँ चारों निकायके देवताओंसे घिरे हुए, दृष्टि रूपी चकोर के लिए चन्द्र के समान प्रभु को भरत राजने देखा । भगवान् की तीन प्रदक्षिणा दे, प्रणाम कर, मस्तक पर अञ्जलि जोड़, चक्रवर्ती महाराज भरत ने स्तुति करना आरम्भ किया।
भरत द्वारा की हुई प्रभु स्तुति । “ हे अखिल जगन्नाथ ! हे बिश्व संसार को अभय देने वाले ! हे प्रथम तीर्थङ्कर ! हे जगतारण! आप की जय हो! आज