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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र
उसका पेट या उदर कृश था और चन्द्र मण्डल के जैसे नख मण्डल से मण्डित था। उसका नि:श्वास दीर्घ और सुगन्धि पूर्ण था। उसकी सूंडका अगला भाग लम्बा और चञ्चल था। उसके होठ, गुह्य इन्द्रिय और पूंछ-ये तीनों बहुत लम्बे लम्बे थे। जिस तरह दोनों ओर रहने वाले सूरज और चन्द्रमा से मेरु पर्वत अङ्कित होता हैं ; उसी तरह दोनों ओर केघण्टों से वह अङ्कित था। कल्प-वृक्षके फूलों से गूंधी हुई उसके दोनों ओर की डोरियाँ थीं। मानों आठ दिशाओं की लक्ष्मीकी विभ्रम भूमि हो, इस तरह सोने के पट्टों से अलंकृत किये हुए आठ ललाटों और आठ मुखों से वह सुशोभित था। बड़े भारी पर्वत के शिखरों की तरह, मजबूत, किसी कदर टेढ़े और ऊँचे प्रत्येक मुखमें आठ आठ दाँत थे। प्रत्येक दाँत पर सुस्वादु और निर्मल जलकी एक एक पुष्करिणी थी। जो वर्षधर पर्वतके ऊपर के सरोवर की तरह शोभायमान थीं। प्रत्येक पुष्करिणी में आठ आठ कमल थे। उनके देखने से ऐसा जान पड़ता था, गोया जलदेवी ने जलके बाहर अपने मुख निकाल रखे हों। प्रत्येक कमलमें आठ आठ विशाल पत्ते थे। वे क्रीड़ा करती हुई देवाङ्गनाओं के विश्राम लेने के द्वीपोंकी तरह सु. शोभित थे। प्रत्येक पत्ते पर चार चार प्रकार के अभिनय हाव भावसे युक्त जुदे जुदे आठ आठ नाटक शोभते थे। और हरेक नाटक में मानों स्वादिष्ट रसके कलोल की सम्पत्ति वाले सोते हों ऐसे बत्तीस बत्तीस पात्र नाटक करने वाले थे। ऐसे उत्तम गजेन्द्र पर अगाड़ी के आसन में परिवार समेत इन्द्र सवार हुभा।