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प्रथम पर्व
आदिनाथ चरित्र बाद प्रभुने जहाँ जहाँ भिक्षा ग्रहण की, वहाँ वहाँ लोगोंने इसी तरह पीठे बनवा दी। इससे अनुक्रमसे “आदित्य पीठ” इस तरह प्रवृत्त हुआ।
भगवान् का तक्षशिला गमन । एक समय, जिस तरह हाथी कुञ्जमें प्रवेश करता है, उस तरह प्रभु सन्ध्या समय, बाहु बलि देशमें, बाहुबलिकी तक्षशिला पुरीके निकट आये और नगरीके बाहर एक बगीचेमें कायोत्सर्ग में रहे। बाग़के मालीने यह समाचार वाहुबलिको जा सुनाया। खबर पातेही बाहुबलिने फ़ौरन ही नगर ।-रक्षक बुलाये और उन्हें हुक्म दिया कि नगरके मकानात और दूकानोंको खूब अच्छी तरह सजा कर नगरको अलंकृत करो। यह हुक्म निकलते ही नगरके प्रत्येक स्थानमें लटकने वाले बड़े बड़े झमरोंसे राहगोरोंके मुकुटोंको चूमने वाली केलेके खंभोंकी तोरण मालिकायें शोभा देने लगीं। मानों भगवान्के दर्शनोंके लिए देवताओंके विमान आये हों, इस तरह हरेक मार्ग रत्नपात्रसे प्रकाशमान मंचोंसे शोभायमान दीखने लगा। वायुसे हिलती हुई उद्दाम पताकाओं की पंक्तियोंसे वह नगरी हज़ार भुजाओं वाली होकर नाचती हो ऐसी शोभने लगी। नवीन केशरके जलके छिड़कावसे सारे नगरकी ज़मीन ऐसी दीखने लगी, मानों मंगल अंगराग किया हो। भगवान्के दर्शनोंकी उत्कण्ठा रूपी चन्द्रमाके दर्शनसे वह नगर कुमुदके खण्डके समान प्रफुल्लित हो उठा ; यानी सारा शहर