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________________ आदिनाथ चरित्र २७२ प्रथम पर्व कहा-“हे भगवन् ! इस कल्पनीय रसको ग्रहण कीजिये।" प्रभुने अञ्जलि जोड़कर, हाथ रूपी बर्तनसामने किया, उसमें ईख-रस के घड़े ओज ओज कर खाली किये गये। भगवानके हस्त-पात्रमें बहत सा रस समा गया भगवानकी अञ्जलि में जितना रस समाया, उतना हर्षं श्रेयांस के हृदय में नहीं समाया। स्वामी की अअलि में आकाश में जिसकी शिखा लग रही हैं, ऐसा रस मानो ठहर गया हो, इस तरह स्तम्भित हो गया, क्योंकि तीर्थङ्करों का प्रभाव अचिन्त्य होता है। प्रभु ने उस रससे पारणा किया। और सुर, असुर एवं मनुष्यों के नेत्रों ने उनके दर्शनरूपीअमृत से पारणा किया। उस समय मानो श्रेयांसके कल्याणकी ख्याति करने वाले चारण भाट हों, इस तरह आकाशमे प्रतिनाद से बढ़े हुए दुन्दुभी वाजे ध्वनि करने लगे। मनुष्यों के नेत्रोंके आनन्दाश्रुओं की वृष्टि के साथ आकाशसे देवताओंने रनों की बृष्टी की; मानों प्रभु के चरणों से पवित्र हुई पृथ्वी की पूजा के लिये हो इस तरह देवता उस स्थान पर आकाशसे पचरंगे फूलोंकी वर्षा करने लगे; सारे ही कल्प वृक्षों के फूलोंसे निकाला गया हो ऐसे गन्धोदक की वर्षा देवताओं ने की और मानो आकाश को विचित्र मेघमय करते हों, इस तरह देव और मनुष्य उज्ज्वल उज्ज्व ल कपड़े फैकने लगे। वैशाख मासकी तृतीया (तीज) को दिया हुआ वह दान अक्षय हुआ, इसलिये वह पर्व अक्षय तृतिया या आखातीज के नामसे अबतक चला जाता है। जगतमें दान धर्म श्रेयांससे चले और बाकी सब व्यवहार और नीति क्रम भगवन्त से चले।
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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