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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
कि दो सरल स्वभाव बालक राज्य लक्ष्मी मॉगते ओर भगवान् की सेवा करते हैं। नागराजने अमृत समान मीठी बाणीसे उनसे कहा - "तुम कौन हो और साग्रह दृढ़ता के साथ क्या माँगते हो ? जिस समय जगदीशने एक वर्षतक मन चाहा महा दान हर किसीको बिना ज़रा भी रोकटोकके दिया था, उस समय तुम कहाँ थे ? इस वक्त स्वामी निर्भय, निष्परिग्रर, अपने शरीर में भी आकांक्षा रहित, और रोष-तोषसे विमुक्त हो गये हैं; अर्थात इस समय प्रभु मोह-ममता रहित, और जंजालसे अलग हो गये हैं । उन्हें अपने शरीर की भी आकांक्षा नहीं है । राग और द्वेषने उनका पीछा छोड़ दिया है।” यह भी प्रभुका सेवक है, ऐसा समझकर नमि विनमिने मानपूर्णाक उनसे कहा - "ये हमारे स्वामी - मालिक और हम इनके सेवक या चाकर हैं । इन्होंने आज्ञा देकर हम को किसी और जगह भेज दिया और भरत प्रभृति अपने पुत्रोंको राज्य बाँट दिया । यद्यपि इन्होंने सर्वस्व दे दिया हैं, तथापि ये हमको भी राज्य न देंगे। उनके पास वह चीज है या नहीं, ऐसी चिन्ता करनेकी सेवकको क्या जरूरत ? सेवकका कर्त्तव्य तो स्वामी की सेवा करना हैं ।” उनकी बातें सुनकर धरणेन्द्र ने उनसे कहा - "तुम भरत के पास जाकर भरत से माँगो | वह प्रभुका पुत्र है, अतः प्रभुतुल्य है ।" नमि और विनमिने कहा - " इन विश्वेस को पाकर, अब हम इन्हें छोड़ और दूसरे को स्वामी नहीं मानेंगे। क्योंकि कल्पवृक्षको पाकर करीलकी सेवा कौन करता है ? हम जगदीशको छोड़कर, दूसरे से नहीं माँगेंगे ।