SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम पर्व २५७ आदिनाथ चरित्र प्रणाम करके प्रार्थनाकी - "हम दोनों को दूर देशान्तर में भेज कर, आपने भरत प्रभृति पुत्रों को पृथ्वी बाँट दी और हमें गाय के खुर बराबर भी पृथ्वी नहीं दी ! अतः हे विश्वनाथ ! अब प्रसन्न होकर उसे हमें दीजिये आप देवोंके देव हैं। हमारा क्या अपराध देखा, जिससे क्षेत्र तो पर किनारा, आप हमारी बात का जवाब भी नहीं देते ?” उनके यह कहने सुनने पर भी प्रभु ने उस समय कुछ भी जवाब न दिया । क्योंकि ममता-रहित पुरुष दुनियाँके झगड़ोंमें लिप्त नहीं रहते । प्रभु कुछ नहीं बोलते थे, पर प्रभुही अपने आश्रय स्थल है। ऐसा निश्चय कर के वे प्रभु की सेवा करने लगे स्वामीके पासके मार्ग की धूल शान्त करने के लिये वे सदा ही कमलपत्र में जलाशय - तालाब से जल ला लाकर । छिड़कने लगे । सुगन्ध से मतवाले भौंरों से घिरे हुए फूलों के गुच्छे ला लाकर वे धर्म चक्रवर्ती भगवानके सामने बिछाने लगे। सूरज और चन्द्रमा जिस तरह रातत-दिन मेरु पर्वत की सेवा करते हैं; उसी तरह वे सदा प्रभु के पास खड़े हुए तलवार खींच कर उनकी सेवाकरने लगे । और नित्य तीनों समय हाथ जोड कर याचना करने लगे - " हे स्वामी ! हमें राज्य दो 1 आपके सिवा हमारा दूसरा कोई स्वामी नहीं है । 3 afa aafa और धरन्द्र । एक दिन प्रभुकी चरण-वन्दना करने के लिए; नागकुमार का श्रद्धावान् अधिपति धरणेन्द्र वहाँ आया । उसने सविस्मय देखा १७
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy