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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
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आत्मा को लुप्त कर डालते हैं ; अर्थात् वात, पित्त और कफ-इन तीनों दोषों के एक साथ कोप करने या प्रबल होनेसे जिस तरह प्राणी नष्ट हो जाता है, उसी तरह विषयों के बलवान होनेसे प्राणी का आत्मा नष्ट या तुष्ट हो जाता है; इसलिये विषयी लोगों को धिक्कार है ! जिस समय प्रभुका हृदय इस प्रकार संसारी वैराग्य की चिन्ता सन्ततिके तन्तुओं से व्याप्त हो गया, जिस समय प्रभुके हृदय में वैराग्य-सन्बन्धी विचारोंका तांता लगा, उस समय ब्रह्म नामक पाँचवें देवलोकके रहने वाले सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्गतोय, तुषिताश्व, अत्याबाध, मस्त, और रिष्ट नामके लोकान्तिक देवताओंने प्रभुके चरणोंके पास आ, मस्तक पर मुकुट जैसी पद्मकोषके समान अञ्जलि जोड़, इस तरह कहने लगे"हे प्रभो! आपके चरण इन्द्रकी चूड़ामणिके कान्ति रूप जलमें मग्न हुए हैं, आप भरतक्षेत्रमें नष्ट हुए मोक्ष मार्गको दिखानेमें दीपकके समान हैं। आपने जिस तरह इस लोककी सारी ध्यवस्था चलाई, उसी तरह अब धर्म-तीर्थको चलाइये और अपने कृत्यको याद कीजिये" देवता लोग प्रभुसे इस तरह प्रार्थना करके ब्रह्मलोकमें अपने अपने स्थानोंको चले गये। और दीक्षाकी इच्छा वाले प्रभु भी तत्काल नन्दन उद्यानसे अपने राजमहलोंकी ओर चले गये।
॥ दूसरा सर्ग समाप्त।