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आदिनाथ-चरित्र - २४० .
प्रथम पर्व लब यह है, लोभ मोह प्रभृति के त्यागने पर ही प्राणीको संसार से छूटकारा या मुक्ति मिल सकती है। इनके सोते रहने या इनके न होने पर ही प्राणी संसारबन्धन से छूटकर मोक्षपद लाभ कर सकता है। अहो ! मानों भूत लगे हों, इस तरह स्त्रियोंके आलिइनमें मस्त हुए प्राणी अपनी क्षीण होती हुई आत्मा को भी नहीं जानते। सिंहको आरोग्य करनेसे जिस तरहसिंह अपने आरोग्य करने वाले का ही प्राण लेता है ; उसी तरह आहार प्रभृतिसे उपजा हुआ उन्माद अपने ही भव भ्रमण या संसार वन्धन का कारण होता है। जिस तरह सिह में किया हुआ आरोग्य आरोग्य करने बालेका काल होता है, उसी तरह अनेक प्रकारके आहार प्रभृति से पैदा हुआ उन्माद हमारी आत्मा में ही उन्माद पैदा करता; यानी आत्मा को भव-बन्धन में फंसाता है। यह सुगन्धी है कि यह सुगन्धी ! मैं किसे ग्रहण करूँ, ऐसा विचार करने वाला प्राणी उसमें लम्पट होकर, मुढ़ बनकर, भौंरे की तरह भ्रमता फिरता है। उसे किसी दशामें भी सुख-शान्ति नहीं मिलती। जिस तरह खिलौने से बालक को ठगते हैं, उसी तरह केवल उस समय अच्छी लगने वाली रमणीय चीज़ोंसे लोग अपनी आत्मा को ही ठगते हैं। जिस तरह नींदमें सोने वाला पुरुष शास्त्र-चिन्तनसे भ्रष्ट हो जाता है, उसी तरह सदा बाँसुरी और वीणाके नाद को कान लगाकर सुननेवाला प्राणी अपने स्वार्थसे भ्रष्ट हो जाता है। एक साथ ही प्रबल या कुपित हुए वात, पित्त और कफकी तरह प्रबल हुए विषयों से प्राणीअपने चैतन्य या