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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
इष्टापूर्ति प्रिय है, ऐसी वसन्त ऋतुने वासन्ती लताको भ्रमर रूपी पथिकके लिये मकरन्द-रसकी प्याऊ लगाई थी। सिन्धुवारके वृक्ष, जिनके फूलोंकी आमोद की समृद्धि अत्यन्त दुर्वार है, विषकी तरह नाक-द्वारा प्रवासियों में महामोह की उत्पत्ति करते हैं। वसन्त रूपी उद्यानपाल-माली चम्पेके वृक्षोंमें लगे हुए भौरे-रक्षकों की तरह, नि:शङ्क होकर बेखटके घूमता था यौवन जिस तरह स्त्री-पुरुषों को शोभा प्रदान करता है, उनका रूप लावण्य-खिलाता है, उनकी खूबसूरती पर पालिश करता है, इसी तरह वसन्त ऋतु बुरे-भले वृक्ष और लताओं को शोभा प्रदान करती थी, उनको हरा भरा, तरो ताज़ा और सोहना बनाती थी। मतलब यह है, जिस तरह जवानी का दौर दौरा होनेपर बुरे भले सभी स्त्री-पुरुष सुन्दर दीखने लगते हैं, कुरूपसे कुरूप पर एक प्रकार का नूर टपकने लगता हैं; उसी तरह बसन्त का राजत्व होनेसे बुरे भले वृक्ष और लताएँ सुन्दर, मनोमोहक और नेत्र रञ्जक दीखते थे। मृगनयनियोंको फूल तोड़ना आरंभ करते देख कर ऐसा ख़याल होता था, मानों वे भारी पर्व में वसन्त को अर्घ्य देनेको तैयार हुई हों। जान पड़ता था, फूल तोड़ते समय उन्हें ऐसा खयाल हुआ, कि हमारे मौजूद रहते, कामदेव को दूसरे अस्त्र-फूलकी क्या जरूरत हैं ? ज्योंही फूल तोड़े गये, वसन्ती लता उनकी वियोग रूपी पीड़ा से पीडित होकर, भौरोंके गूंजनेकी आवाज से रोती हुई सी मालूम होती थी। दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं कि, ज्योंही बसन्ती लताके फूल तोड़े गये , वह अपने