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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
थे। उससे मेघ जैसी गम्भीर आवाज़ निकलती थी और वह शंखके जैसी थी। निर्मल, वर्तुलाकार कान्तियोंकी तरङ्ग वाला उनका चेहरा कलङ्क-रहित दूसरे चन्द्रमा-जैसा सुन्दर मालूम होता. था, अर्थात् चन्द्रमामें कलङ्क-कालिमा है, पर उनका निर्मल और सुगोल चन्द्रमुख निष्कलङ्क था उसमें कलङ्क-कालिमाका लेशभी न था ; अतएव वह चन्द्रमासे भी अधिक सुन्दर था। उनके दोनों गाल नरम चिकने और मांससे भरे हुए थे। वे साथ निवास करने वाली वाणी और लक्ष्मीके सुवर्णके दो आईनोंकी तरह दिखाई देते थे-सोनेके दो दर्पणोंकी तरह शोभा देते थे। उनके दोनों कान कन्धों तक लम्बे और अन्दरसे सुन्दर आवर्त्तया आँटेवाले थे और उनके मुखकी कान्ति रूपो सिन्धुके तीर पर रहने वाली, दो सीपों की तरह मालूम होते थे। बिम्बाफलके समान लाल उनके होठ थे। कुन्द-कली जैसे बत्तीस दाँत थे और अनुक्रमसे विस्तार वाली और उन्नत बाँस-जैसी उनकी नाक थी। उनकी दाढ़ी पुष्ट, गोल, नरम और सत्मश्रु तथा उसमें स्मश्रुका भाग श्यामवर्ण, चिकना और मुलायम था। प्रभुकी जीभ नवीन कल्पवृक्षके मूंगे जैसी लाल, कोमल, नाति स्थूल, और द्वादशाङ्ग आगम-शास्त्रके अर्थ को प्रसव करने वाली थीं ; उनकी आँखें भीतरसे काली और धौली तथा प्रान्तभागमें लाल थीं इससे ऐसा जान पड़ता था, मानों वे नीलम, स्फटिक और माणिक से बनायी गयी हों । वे कानों तक पहुँची हुई थीं और उनमें श्याम बरौनियां या बॉफनिया थीं; इस लिथे, लीन हुए भौरेवाले खिलेहुए