________________
आदिनाथ- चरित्र
२०४
प्रथम पर्व
हुऐ गोल: घुटने रुईसे दर्पणके रूपको धारण
1
घोड़े की तरह कुलीन पुरुष
तिरष्कार करने वाली थीं। मांस से भरे भरे हुए गोल तकियेके भीतर डाले हुए करते थे । मृदु क्रमसे उत्तरोत्तर स्थूल और चिकनी जाँघें केलेके खंभके विलासको धारण करती थीं और मस्त - हाथी की तरह गूढ़ 'और सम स्थितिवाली थी। क्योंकि का शरीर चिह्न अतीव गुप्त होता है। उनकी गुह्य इन्द्रिय पर शिरायें नहीं दीखती थीं; वह न उँचा न नीचा, न ढीला न छोटा और लम्बाही था । उस पर रोम नहीं थे और आकार में गोल था । उनके कोप या तेपोके भीतर रहने वाला पंजर शीत प्रदक्षिणावर्त्त शल्क धारण करने वाला, अवीभत्स और आवर्त्ताकार था। प्रमुकी कमर विशाल, पुष्ट, स्थूल और अतीव कठोर थी । उनका मध्य भाग सूक्ष्मता में वज्रके मध्य भाग- जैसा मालूम होता था। उनकी नाभि नदीके भँवर के विलासको धारण करती थी । उसका मध्य भाग सूक्ष्मतामें वज्रके मध्य भागके जैसा था । उनकी नाभिमें नदीके भँवर - जैसे भँवर पड़ते थे और कोखके दोनों भाग चिकने, मांसल, कोमल, सरल और समान थे । उनका वक्षस्थल सोनेकी शिलाके समान विशाल, उन्नत, श्रीवत्सर पीठके चिह्नसे युक्त और लक्ष्मीकी क्रीड़ा करनेकी वेदिकाकी शोभाको धारण करता था; अर्थात् उनकी छाती लम्बी-चौड़ी और ऊँची थी । उस पर श्रीवत्सपीठका निशान था और वह लक्ष्मीकी क्रीड़ा करनेकी वेदिका जैसी सुन्दर और रमणीय थी । उनके दोनों कन्धे बैलके कन्धोंकी तरह मज़बूत