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आदिनाथ- चरित्र
प्रथम पर्व
को पहले की अपेक्षा भी संक्षिप्त करता हुआ, इन्द्र जम्बूद्वीप के दक्खन भरतार्द्ध में, आदि तीर्थङ्करकी जन्मभूमि में आ पहुँचा । सूर्य जिस तरह मेरु की प्रदक्षिणा करता है; उसी तरह वहाँ उस ने उस विमान से प्रभु के सूतिकागार की प्रदक्षिण की और घर के कोने में जिस तरह धन रखते हैं; उसी तरह ईशान कोण मैं उस विमान को स्थापन किया ।
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सौधर्मेन्द्रका भगवान के चरणों में प्रणाम करना ।
मरुदेव माता को परिचय देना ।
सौन्द्रका भगवान् को ग्रहण करना ।
पीछे महामुनि जिस तरह मान से उतरता है - मान का त्याग करता है - उसी तरह प्रसन्नचित्त शक ेन्द्र विमान से उतर कर प्रभु के पास आया । प्रभु को देखते ही उस देवाधिपति ने पहले प्रणाम किया क्योंकि 'स्वामी के दर्शन होते ही प्रणाम
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करना स्वामी की पहली भेट है।' इस के बाद माता सहित प्रभु की प्रदक्षिणा करके, उसने फिर प्रणाम किया। क्योंकि भक्ति में पुनरुक्ति दोष नहीं होता : यानी भक्ति में किये हुए काम को बारम्बार करने से दोष नहीं लगता । देवताओं द्वारा मस्तकपर अभिषेक किये हुए उस भक्तिमान् इन्द्र ने, मस्तक पर अञ्जलि जोड़कर, स्वामिनी मरुदेवा से इस प्रकार कहना आरम्भ किया :-- “ अपने पेट में रत्नरूप पुत्र को धारण करनेवाली