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प्रथम पर्व
१६५ आदिनाथ-चरित्र न त्याग दिया। सात आठ कदम भगवान्के सामने चलकर, मानो दूसरे रत्न-मुकुटकी लक्ष्मीको देने वाली हो ऐसी कराञ्जलिको मस्तकपर स्थापन करके, जानु और मस्तक-कमलसे पृथ्वीको स्पर्श करते हुए प्रभुको नमस्कार किया और रोमाञ्चित होकर उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगा:- " हे तीर्थनाथ ! हे जगत् को सनाथ करने वाले ! हे कृपारसके समुद्र ! हे श्री नाभिनन्दन! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे नाथ ! नन्दन प्रभृति तीन बगीचोंसे जिस तरह मेरु पर्वत शोभित होता है ; उसी तरह मति प्रभृति तीन ज्ञानों सहित पैदा होने से आप शोभते हैं । हे देव ! आज यह भरत क्षेत्र स्वर्गसे भी अधिक शोभायमान है; क्योकि त्रैलोक्यके मुकुट-रत्न-सदृश आपने उसे अलंकृत किया है। हे जगन्नाथ ! जन्म कल्याणसे पवित्र हुआ आजका दिन, संसारमें रहूँ तब तक, आपको तरह, वन्दना करने योग्य है। आपके इस जन्मके पर्वसे नरकवासियोंको सुख हुआ है । क्योंकि अर्हन्तोंका हृदय किसके सन्तापको हरने वाला नहीं होता ? इस जम्बूद्वीपस्थित भरत-क्षेत्र या भारतवर्ष में निधानकी तरह धर्म नष्ट हो गया है, उसे अपने आज्ञा रुपी बीजसे फिर प्रकाशित कीजिये । हे भगवान् ! आपके चरणोंको प्राप्त करके अब कौन संसार-सागरसे नहीं तरेगा ? आपके पदपङ्कजोंकी कृपा होनेसे अब किसका भवसागरसे उद्धार न होगा ? क्योंकि नावके योग से लोहा भी समुद्रके पार हो जाता है। हे भगवान् ! वृक्ष-विहीन देशमें जिस तरह कल्पवृक्ष हो और मरुदेशमें