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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व साथ बज उठते हैं ; उसी तरह स्वर्ग की शाश्वत घण्टियाँ बड़े जोरों से बज उठीं। पर्वतों की चोटियाँ के समान अचल और अडिग्ग इन्द्रों के आसन, संभ्रम से हृदय काँपता है इस तरह, काँप उठे। उस वक्त सौधर्म-देवलोकाधिपति सौधर्मेन्द्र के नेत्र काँपनेके आटोप से लाल होगये। ललाट-पट्टपर' भृकुटी चढ़ानेसे उनका चेहरा विक्राल होगया। भीतरी क्रोधरूपी अग्नि की शिखा की तरह उनके होठ फड़कने लगे। मानो आसन को स्थिर करने के लिए-उस की कँपकँपी बन्द करनेके लिए--वे एक पाँव को ऊँचा करने लगे और 'आज यमराज ने किसको चिट्ठी दी है ? आज मौत का वारण्ट किसपर जारी हुआ है ? आज किसका काल पुकार रहा है ? ऐसा कहकर, उन्होंने अपनाशूरातन रूपअग्निको वायु-समान-वज्र ग्रहण करने की इच्छा की। इन्द्र को कुपित केशरी सिंह की तरह देखकर, मानो मूर्त्तिमान होऐसे सेनापतिने आकर कहा, हे स्वामि ! मुझ जैसे सिपाही के होते हुए, आप स्वयं आवेश में क्यों आते हैं ? हे जगत्पति ! आज्ञा कीजिये, मैं आप के किस शत्रु का मान मर्दन करूँ ?' उसी क्षण, अपने मन का समाधान कर, इन्द्रने अवधिज्ञान से देखा, तो उसे मालूम हो गया कि, आदि प्रभुका जन्म हुआ है। उसके क्रोधका वेग तत्काल हष से गल गया, खुशीके मारे उसका गुस्सा फौरनही काफूर होगया । वृष्टिसे शान्त हुए दावानल वाले पवतकी तरह,इन्द्र शान्त हो गया। 'मुझ धिक्कार है जो मैंने ऐसा विचार किया, मेरा दुष्कृत मिथ्या हो' यह कहकर उसने इन्द्रास