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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र में, भक्ति में दक्ष उन मित्रों ने मुनि महाराज से क्षमा मांगी। मुनि भी वहाँ से अन्यत्र विहार कर गये अर्थात् किसी दूसरी जगह को चले गये। क्योंकि ऐसे पुरुष एक जगह टिककर नहीं रहते । मुनिके आराम होकर चले जाने के बाद, उन. बुद्धिमानों ने बाकी बचे हुए गोशीर्ष चन्दन और रत्नकम्बल को बेचकर सोना खरीद लिया। उन्होंने उस सोने और दूसरे सोनेसे मेरुके शिखर जैसा, अहँत्-चैत्य बनाया। जिन प्रतिमा की पूजा और गुरु की उपासना में तत्पर होकर. कम की तरह, उन्होंने कुछ समय भी व्यतीत किया ! एक दिन उन छहों मित्रों के हृदयों में वैराग्य उत्पन्न हुआ; अर्थात उन्हें इस संसार से विरक्ति होगई। तब उन्हों ने मुनि महाराज के पास जाकर, जन्मवृक्ष के फल-स्वरूप, दीक्षा ली । एक राशि से दूसरी राशिपर जिस तरह नक्षत्र चक्कर लगाया करते हैं; उसी तरह वे भी नगर, गाँव और बन में नियत समय तक रहकर विहार करने लगे। उपवास, छठ और अहम प्रभृति की तप-रूपी सान से उन्होंने अपने चरित्ररत्न को अत्यन्त निर्मल किया। वे आहार देनेवालों को किसी तरह की तकलीफ नहीं देतेथे। केवल प्राण धारण करने के कारणसे ही, मधुकरी वृत्ति* से, पारणे को दिन भिक्षा ग्रहण करते थे; अर्थात् वे मधुकर या भौंरे की सा आचरण करते थे। भौंरा जिस तरह फूलों
मधुकर भौंरा, मधुकरी वृत्ति भौरे की सी वृत्ति । भौरों जिस फूलोंका पराग लेता है, पर उन्हें तकलीफ नहीं देता, उसी तरह मधुकिरी वृत्ति वाले साधु गृहस्थों से आहार लेते हैं, पर उन्हें कष्ट हो, ऐसा काम नहीं करते।