________________
आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व
न भूलकर नाना प्रकार के तप करने लगी । वह युवती हो गई, तोभी उस दुर्भगा के साथ किसी ने विवाह नहीं किया; क्योंकि कड़वी तूम्बी पक जाती है, तोभी उसे कोई नहीं खाता । वर्त्त - मान में, वह निर्नामिका विशेष वैराग्य और भाव से युगंधर मुनि के पास अनशन व्रत ग्रहण करके रहती है । इसलिये हे ललिताङ्ग देव ! आप वहाँ जाओ और उसे अपने दर्शन दो; जिस से आप पर आसक्त हुई वह मरकर आप की स्त्री हो ।” कहा है कि, अन्तमें जैसी मति होती हैं, वैसीही गति होती है । पीछे ललितांग देव ने वैसा ही किया और उस के ऊपर आसक्त हुई वह सती मरकर स्वयंप्रभा नाम्नी उसकी पत्नी हुई। मानो प्रणयकोध से रूठ कर गई हुई स्त्री फिर मिल गयी हो; इस तरह अपनी प्यारी को पाकर, ललिताङ्ग देव खूब क्रीड़ा करने लगा; क्योंकि अधिक घाम लगने पर छाया अच्छी लगतीही है ।
ܪ
८८
ललितांगदेव के च्यवन-चिह्न ।
इस तरह क्रीड़ा करते हुए कितना ही समय बीत जानेपर ललिताङ्ग देव को अपने व्यवन -- पतनके चिह्न नज़र आने लगे । मानो उस के वियोग भय से रत्नाभरण निस्तेज होने लगे और उसके शरीर के कपड़े भी मैले होने लगे । जब दुःख नज़दीक आता है, तब लक्ष्मीपति भी लक्ष्मी से अलग हो जाते हैं। ऐसे लमय में, उसे धर्म से अरुचि और भोग में विशेष आसक्ति हुई । जब अन्त समय आता है, तब प्राणियों की प्रकृति में फेरफार